लिखा है। मगर १८७५ के बाद यह संगठन धीरे-धीरे सभा का रूप लेता है १९२० में मालाबार में; हालांकि वह भी टिक नहीं पाता।
उत्तर और पूर्व बंगाल में नील बोने वाले किसानों का विद्रोह भी इसी मुद्दत में आता है। बिहार के छोटा नागपुर का टाना भगत आन्दोलन भी असहयोग युग के ठीक पहले जारी हुआ था। १९१७ में चम्पारन में निलहे गोरों के विरुद्ध गांधी जी का किसान-आन्दोलन चला और सफल हुआ अपने तात्कालिक लक्ष्य में। गुजरात के खेड़ा जिले में भी उनने किसान आन्दोलन इससे पूर्व उसी साल चलाया था। मगर वह अधिकांश विफल रहा। अवध में असहयोग से पहले १९२० में बाबा रामचन्द्र के नेतृत्व में चालू किसान-आन्दोलन वहाँ के ताल्लुकेदारों के विरुद्ध था, जिसमें लूट-पाट भी हुई। इस प्रकार के आन्दोलन मुल्कों में जहाँ-तहाँ और भी चले। मगर उन पर विशेष रोशनी डालने का अवसर यहाँ नहीं है।
इनका निष्कर्ष, इनकी विशेषता
असहयोग युग के पूर्ववर्त्ती आन्दोलनों की विशेषता यह थी कि एक तो वे अधिकांश असंगठित थे। दूसरे उनको पढ़े-लिखे लोगों का नेतृत्व प्राप्त न था। अवध वाले में भी यही बात थी। तीसरे उनने मार-काट का आश्रय लिया। तब तक जनान्दोलन का रहस्य किसे विदित था? यह भी बात थी कि ये विद्रोह और आन्दोलन पहले से तैयारी करके किये न गये थे। जब किसानों पर होने वाले जुल्म असह्य हो जाते थे और उन्हें अपने त्राण का कोई दूसरा रास्ता दीखता न था तो वे एकाएक उबल पड़ते थे। फिर तो मार-काट अनिवार्य थी। परिस्थिति उन्हें एतदर्थ विवश करती थी या यो कहिये कि जमींदार और शोषक अपने घोर जुल्मों के द्वारा उन्हें इस हिंसा के लिये विवश करते थे। यही उनकी कमजोरी थी। इसी से वे दबा दिये गये और विफल से रहे; हालांकि उनका सुन्दर परिणाम किसानों के लिये होकर रहा, यह सभी मानते हैं। कितने ही कानून किसान-हित-रक्षा के लिये बने उन्हीं के चलते।