। ( १२४ ) रुकी। लाचार जीवन भाई के साथ पैदल ही श्रागे बढ़े। उनने कहा कि श्रागे कुछ दूरी पर जो गाँव पक्की सड़क से हट के पड़ता है वहीं से एक बैलगाड़ी लेके उसी पर हरिपुग चलेंगे। बस, गाँव की ओर चल पड़े। दो-तीन मील चलने पर गाँव आया। गाँव पहुँचने के पहले ही हमने जीवन भाई से रानीपरज तथा और किसानों की हालत पूछी। वे भी रानीपरज बिरादरी के ही थे । इसीलिये 'उनकी दशा ठीक ठीक बता सकते थे। ऊपर से जान पड़ता था कि गांधी जी और सरदार बल्लभ भाई के बड़े भक्त थे। पहले कांग्रेस में उनने काफी काम भी किया था, मगर उनने जो हृदय विद्रावक वर्णन अपने भाइयों के कष्टों का किया उससे हमारा तो खून उरल पड़ा। उनकी भी मावभंगी अजीब हो गई थी। उनने कहा कि यदि किसी रानीपरज के के पस काफी जमीन हो और अपने गरीब भाई से खेती का काम वह कराये तो काम करने वाले के परिवार को अपने ही मकान के एक भाग में रखके अपने ही परिवार में उस परिवार को शामिल कर लेगा । मगर, अगर साहुकार, पारसी या पटेल वही काम गरीब रानीपरज से कराये तो दिन में ज्वार की रोटी और कोई साग उसे खाने को देगा जिसमें मसाले के नाम पर सिर्फ लाल मिर्च के बीज पड़े होंगे, न कि लाल मिर्च ।' असल में गुजरात में उन बीजो को निकाल के फेंक देते हैं। खाते नहीं । इसीलिये साहुकार उन वेकार चीनों को उन गरीबों के साग में डाल देते हैं । शाम को दो सेर ज्वार या एक डेढ़ आने पैसे ~ । इसके बाद जो कुछ उनने कहा या कहना चाहा वह बड़ा ही वीभत्स था। उनकी आँखें डबडबा पाई। आखिर अपनी ही बिरादरी की प्रतिष्ठा की बात जो ठहरी । उनने कहा कि हमारे जो भाई साहुकारों के ऋण में फँसे हैं उनकी जवान लड़कियों और पुत्र-वधुओं को भी ये राक्षस कमी कभी जबर्दस्ती काम करवाने के लिये बुलवा लेते हैं। अब आप ही, सोच सकते हैं कि उनका धर्म कैसे बचने पाता होगा, श्रादि आदि। उनने इस बात
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