(१२२ ) तादाद वहाँ हाजिर थी । मैले और काले कपड़े वाले भी थे ही। श्रमिकों के क्या हक हैं और उनकी प्राप्ति के लिये उन्हें क्या करना होगा यही बात -मैंने उन्हें बताई । सभा के बाद हम अपने स्थान पर वापिस आये। दूसरे दिन गोध्रा के नजदीक, उसके बाद वाले वैजलपुर स्टेशन से उत्तर जीतपुरा में हमारी मीटिंग थी। यह खासी देहात की सभा थी! दर के किसान उसमें हाजिर थे । बहुत ही उत्साह और उमंग से हमें वे लोग वहाँ ले गये । बाजे गाजे और तैयारी की कमी न थी। सभा भी पूर्ण सफल हुई । जिस जमीन में सभा हुई उसे किसान ने किसान-अाश्रम बनाने के लिये दे दिया। आगे के स्थायी काम के लिये इस प्रकार वहाँ नींव डाली गई, यही उसकी सबसे बड़ी विशेषता थी। मुझे इस बात से अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि मेरी हिन्दी भाषा वहाँ के खेडूत भी बखूबी -समझ लेते थे । वेशक मेरी कुछ ऐसी आदत हो गई है कि किसानों • के ही समझने योग्य भाषा बोलता हूँ, सो भी. धीरे धीरे । असल में बातें तो उनके दिल की ही बोलता हूँ। इसीलिये उन्हें समझने में आसानी होती है । हाँ, तो जीतपुरा से लौट के हमने रात में गाड़ी पकड़ी और मढ़ी चल पड़े । मढ़ी से ही हरिपुरा जाना था। मढ़ी और हरिपुरा के बीच में ही हमारी एक और भी सभा थी खासी देहात में । हमने वह सभा की तीसरे पहर । कांग्रेसी मंत्रिमंडल तो बनी चुका था। पहले पहल हमने उसी सभा में एक बात कही जिसे हम पीछे चल के कई जगह दुहराते रहे । दरअसल गुजरात और महाराष्ट्र में कर्ज और साहुकारों के जुल्म का ही प्रश्न सबसे पेचीदा और महत्वपूर्ण है। कहा जाता है कि वहाँ जमींदारी-प्रथा नहीं है । वहाँ के किसानों का सरकार के साथ सीधा सम्बन्ध है । इसे रैयतवारी कहते हैं । मगर बनियों और साहुकारों ने -सूद दर सूद के जाल में फांस के किसानों की प्रायः सारी जमीनें ले ली है और वे खुद जमींदार बन बैठे हैं। अर्दमाग या बॅाई पर फिर उन्हीं किसानों को वही जमीने ये साहुकार जोतने को देते हैं। और अगर फसल मारी जाय तो खामखाह नगद मालगुजारी ही वसूल कर लेते हैं।
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