। 65 ( १२१ ) है। जंगली प्रदेश तो हई । यह दृश्य मैंने पहले पहल देखा। मगर यह भी देखा कि वे मेरी बातें मस्त होके सुनते और झूमते थे । मेरी भाषा तो उनकी न थी। फिर भी मैं इस तरह बोलता था कि वे समझ जावें। वातें तो उन्हींके दिल की बोलता था। फिर झूमें क्यों नहीं ? हमें वहीं पर यह भी पता चला कि उसी इलाके में बहुत पहले से "भील सेवा-मंडल' काम कर रहा है। वहाँ जाने का तो हमें मौका न लग सका । क्योंकि शाम तक दाहोद वापस अाना जरूरी था। रेलवे मजदूरों की सभा में बोलना जो था । मगर लौटते समय रास्ते में ही हमें दूर से "सेवा- मंडल" के मकान दिखाये गये। सेवा-मडल का काम भीलों के विकास से ताल्लुक रखता था । मंडल के कार्यकर्ताओं में अच्छे से अच्छे त्यागी लोग रहे हैं। हमारे साथी श्री इन्दुलाल जी का भी उसमें हाथ रहा है। यह काम उस समय शुरू हुआ जब हमारे देश में राजनीतिक चेतना नाम- मात्र को ही थी। इसीलिये समाज सेवा के नाम पर यह मंडल खुना। मगर आज जब राजनीतिक चेतना की एक बड़ी बाढ़ हमारे देश में आ गई है और उसीके साथ उसका आर्थिक पहलू स्पष्ट हो गया है, तब ऐसे संस्थाओं का खास महत्त्व है या नहीं, यही प्रश्न पैदा होता है। यदि महत्व हो भी तो क्या उनके काम का तरीका वही रहे या बदला जाय, यह दूसरा सवाल भी खड़ा होता है । भीलों की वह असभ्यता तो जाती रही। समय ने पलटा खाया और वह सभ्यता की वायु में सांस लेने को बाध्य है। इस मकोरे से वे बच नहीं सकते, यदि हजार चाहें । ऐसी हालत में आर्थिक प्रोग्राम के आधार पर ही उनमें अब काम क्यों न किया जाय ! मेरा तो विश्वास है कि असभ्य और जरायम पेशा कही जाने वाली जातियों में अब भी मर्दानगी औरों से कहीं ज्यादा है। फिर तो आर्थिक प्रोग्राम की बिना पर ज्योंही उनमें काम शुरू हुआ और इसका महत्त्व उनने समझ लिया कि हक की लड़ाई में जूमने के लिये सबसे प्रागे वही लोग मिलेगें। खैर, शाम तक उस सभा से हम लोग लौटे और मनदरों की मीटिंग में गये। मीटिंग खासी अन्ची थी। सफेद पोश वाबुनों की एक अच्छी
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