मजदूरों की सभा में बोलना था। मगर सबसे सुन्दर चीज थी दाहोद से दूर देहात में भीलों की एक बड़ी सभा। म्युनिसिपैलिटी के अध्यक्ष ये एक बहोरा मुसलमान सज्जन | मगर जो अभिनन्दन पत्र उनने गुजराती में पढ़ा और जो संक्षिप्त भाषण दिया वह मार्के का था। मैंने भी उचित उत्तर दिया। संन्यासी होके किसानों के काम में मैं क्यों पड़ा इस बात का स्पष्टीकरण वहाँ मैंने निराले ढंग से किया । असल में शहरों के लोगों का पेट जैसे तैसे भरी जाता है । इसलिये उन्हें धर्म की पर्वा ज्यादा रहती है। मैंने भी धर्म की ही दृष्टि से उन्हें समझाया। मैंने कहा कि यद्यपि भगवान सभी जगह है, फिर भी उसे विशेषरूप से शोषितों में ही पाता हूँ और वहीं ढूँढ़ने से वह मिलता है । जिस प्रकार फोड़े वाले के सारे शरीर में दवा न लगाके. दर्द की ही जगह दवा लगाने से उसे विशेष अानन्द मिलता है, क्योंकि उसका मन वहीं केन्द्रीभूत है । उसका मन, उसकी आत्मा वहीं मिलती है, पकड़ी जाती है हालाँकि वह है दर असल सारे शरीर में । वही हालत. भगवान की है। जब हम लोग दूसरे दिन भीलों की मीटिंग में गये तो हमें बड़ा मजा आया । स्थान का नाम भूलता हूँ। मैदान में सभा थी। खासी भोड़ थी। चारों ओर आदमी ही श्रादमी थे। मर्द भी थे, औरतें भी थीं। थे तो दूसरे लोग भी । मगर भीलों की ही प्रधानता वहाँ थी । बचपन में सुना करता था कि द्वारका की यात्रा करने वाले यात्री लोग जब डाकोर की ओर चलते हैं तो दाउद गुहरा (दाहोद-गोध्रा) की झाड़ियाँ मिलती हैं। यानी दाहोद और गोध्रा के बीच में लगातार माड़ियाँ हैं, जंगल हैं जहाँ मोल लोग तीर चलाते हैं और यात्री को मार के लूट लेते हैं। मैं समझता था कि बड़े ही खंखार और भयंकर होंगे । मगर जब उन्हें देखा कि भले आदमियों की सी सूरत-शकल वाले हैं तो आश्चर्य हुआ । हाँ, अधिकांश के हाथ में धनुष और तीरों के गुच्छे जरूर देखे । इनसे उन्हें अपार प्रेम है। इसीलिये साथ में रखते हैं। उनने कहा कि रास्ते में कहीं चोर- बदमाशों या जंगली जानवरों का खतरा हो तो यही तीर धनुष काम आते. 0
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