विशेष रूप से थी। आखिर किसानों को यह पैगाम तो सुनाना ही था कि किसान-सभा की क्यो जरूरत है जब कि कांग्रेस मौजूद ही है। साधारण पढ़े-लिखों से लेकर ऊपर के प्रायः सभी लोग वहाँ किसान-सभा को देख भी न सकते थे। ऐसी ऐसी दलीलें करते थे कि सुनके दंग हो जाना पड़ता था। वारदौली वाली जो किसानों के नाम को लड़ाई पहले लड़ी जा चुकी थी उसके करते यह गलतफ़हमी और भी ज्यादा बढ़ गई थी कि कांग्रेस ही किसान-सभा है और श्री बल्लभ भाई किसानों के असली नेता हैं | श्री इन्दुलाल जी की बातों से हमें तो कुछ पता चल गया कि वह लड़ाई असली किसानों की न होके उनके शोपकों की ही थी जो असली किसानों को हटा के उनकी जगह जा बैठे हैं और जिनकी संख्या मुट्ठी भर ही है। मगर इस बात की पूरी जानकारी तभी हो सकती थी जत्र वहाँ खुद घूमा जाय। इसीलिये हम बड़े चाव के साथ उस दौरे के लिये रवाना हुए थे। वहाँ जाके हमने खुद अनुभव किया । किसानों की जमीन करीब करीब मुफ्त में ही हथिया लेने वाले जो दस-पन्द्रह फीसदी बनिये पारसी या पटेल वगैरह हैं वही किसान कहे जाते हैं। वे काफी मालदार हैं और उनके पास बहुत जमीनें हैं । पहले के किसान उन्हीके हलवाहे और गुलाम होके नर्क की जिन्दगी गुजारते हैं। उन्हीं दस-पन्द्रह फीसदी लोगों की मालगुजारी घटाने के लिये बारदौली में लड़ाई लड़ी गई थी, ताकि असली किसानों की छिनी जमीनें उन्हें वापस दिलाने या कम से कम उनकी गुलामी मिटाने के लिये। भुसावल से हमने ताप्ती वैली रेलवे को पकड़ी और रवाना हो गये। यह रेलवे बहुत ही धीमी और दुःखद है । पर, मजबूरी थी। मढ़ी स्टेशन, जहाँ से हरिपुरा जाना था, के बहुत पहले ही सोनगढ़ के इलाके में हमें पहली मोटिंग करनी थी और यह सोनगढ़ उसी ताप्ती वैली रेलवे में पड़ता है। बड़ौदा का राज्य है। किसान बहुत ही मजलूम और दुखिया है । वहीं से श्रीगणेश करने का विचार था । मगर बड़ौदा राज्य के हाकिमों को यह बात बर्दाश्त न हो सकी और वे लोग इस फिक में लगे कि किसी प्रकार हमारी. .
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