( १९४) पाते नहीं । उल्टे नेताओं को तौलने की जो उनकी सीधी सी कसौटी है। कि जो कहें उसे खामखाह पूरा करें उसका भी इस्तेमाल करना वे लोग भूल जा सकते हैं । फलतः इसी राजनीति की अोट में धोखेबाज़ लोग उन्हें बराबर चकमा दे सकते हैं । इसीलिये मैंने सीधी बात की और अपनी गलती मान ली। मगर इस घटना से मेरे दिल पर इस बात की गहरी छाप पड़ गई कि किसानों ने अपने हित अहित को पहचानना शुरू कर दिया । वे लोग बड़ी बड़ी बातें बनाने वाले नेताओं और वोट के भिखारियों के चकमे में आसानी से नहीं आ सकते, यदि उनका नेतृत्व ठीक ठीक किया जाय । वे भविष्य में वोट मांगने वालों के नाकों दम कर दे सकते हैं यदि किसान-सभा उस मौके से मुनासिब फायदा उठाके उन्हें पहले ही से आगाह कर दे । जो लोग कहा करते हैं कि किसान बुद्ध हैं और वे आसानी से फाँसे जा सकते हैं वे कितने धोखे में हैं यह बात मैंने उस दिन आँखों देख ली। अत्यन्त पिछड़ी भोली भाली जाति का एक अपढ़ युवक अगर यह बात वेखटके बोल सकता है और मुझे भी मीठे मीठे सुना दे सकता है तो औरों का क्या कहना ! असल में जनता की मनोवृत्ति का ठीक ठीक पता लगाना सबका काम नहीं है । यह बड़ा ही मुश्किल मसला है । इसका थाह बिरले ही पाते हैं जिन्होंने अपने आपको जनता के बीच खपा दिया है, दिन रात उसके हवाले कर दिया है और जो उसी की नींद जागते और सोते हैं। रूसी किसानों की इसी सम्बन्ध की घटना मुझे याद आ गई। श्री लांसलाट अोयन (Launcelot A. Owen) ने अपनी अंग्रेजी किताब 'दी रशियन पेजेन्ट मूवमेन्ट १६०६-१६१७' में रूस के किसानों की सबसे पहली संगठित मीटिंग का जिक्र किया है जो ता० ३१.७.१६०५ को एलेग्जेंडर बैकुनिन नामक जमींदार की जमींदारी में तोरजोक जिले में हुई थी। उस मीटिंग की कार्यवाही पूरी होने के बाद जो आपस में बातचीत जारी हुई थी उसमें किसानों ने भाग लिया था। सिर्फ
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