( ११३ ) के नाम पर उन नर-पिशाच जमींदारों तक को वोट दिया था जिनके हाथों किसानों की एक भी गत बाकी न रही थी। मुझे याद है कि वोट देने के पहले उसी धरहरा के इलाके के एक किसान ने एक सभा में लेक्चर सुनने के बाद ही सुमसे धीरे से कहा था कि आपकी बातें तो हम मान लेंगे और चोट देंगे जरूर । मगर जिन्हें वोट देने को श्राप कहते हैं वह भी जमींदार ही तो नहीं है ? इस पर मैंने उसे समझा-बुझा के ठीक किया था। अाज उस कोइरी नौजवान की बातें सुनके वह घटना भी आँखों के सामने नाच गई। मैंने उससे साफ़ साफ़ स्वीकार किया कि 'हाँ जी, यह तो बात सही है। तुम्हारा इलजाम मैं मानता हूँ । असल में मैं भी धोखे में था । देश की सबसे बड़ी राजनीतिक संस्था की ओर से डंके की चोट नो बातें कही जा रही थीं और जिन्हें बड़े बड़े महात्मा और लीडर बार बार लाखों लोगों के सामने दुहरा रहे थे मैं उन पर विश्वास करता कैसे नहीं ? इसीसे तो 'धोखा हुा । मैं किसानों के सामने अपने आपको इस दृष्टि से अपराधी कबूल करता हूँ। मगर इतना कहे देता हूँ कि इस घटना से मैंने बहुत कुछ सीखा है और किसानों को भी सीखना चहिये । हाँ, आगे के लिये यही कह सकता हूँ कि फिर ऐसो बात होने न दूंगा।' मैंने देखा कि मेरी इन साफ बातों से उसे संतोप हो गया । यदि मैं दलीलें देके अपनी वकालत करने लगता तो उसे शायद हो यह संतोष होता । मगर ईमानदारी से अपनी भूल कबूल कर लेने पर उसने समझ लिया कि गलती तो सभी से होती ही है। स्वामी जी को भी धोखा हो गया था। इनने जान-बूझ के कुछ नहीं किया । वह कोई बड़ा राजनीतिज्ञ तो या नहीं कि मैं उसे राजनीति की पेचीदगियाँ समझाने लगता और कहता कि यदि तुम ऐसा न करते और कांग्रेस को वोट न देते तो जमींदार जीत जाते । फिर तो और भी बुरा होता आदि श्रादि । इन बारीकियों को भला वह अपढ़ और सीधा सादा किसान क्या समझने लगा ! मेरा तो यह भी खयाल है कि उन लोगों से ये बातें कहने से वे इन्हें समझ तो .
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