( १०६ ) चलता रहे। जमोदार का एक मोटा और लम्बा डंडा एक के बाद दीगरे किसानों के दरवाजे पर शाम को हो पहुँच जाया करता था। जिस किसान के घर पर आज पहुँचा वही कल जमींदार के यहाँ जायेगा । फिर कल शाम को उसके घर वाले बगल के पड़ोसी के द्वार पर चुपके से रख पायेंगे जिससे अगले दिन उसे जाने की खबर मिल जाय । यही रवैया बराबर जारी था । जहाँ डंडा महाराज पधारे कि उसे हजार काम छोड़ के जाना ही होगा। 'एक बार अचानक किसी किसान के घर कोई बड़ा बूढ़ा डंडा जी के पदार्पण के बाद रात में मर गया। रिवाज के मुताबिक उस घर के सभी लोग मुर्दे को गंगा-किनारे ले गये । फलतः जमींदार के यहाँ कोई जा न सका । जब यह बात उसे मालूम हुई तो पागबबूला हो गया। किसान की पुकार हुई । वह आया । हाथ जोड़ के भरे हुए गले से उसने सारी कहानी सुनाई और लाचारी के लिये माफ़ी चाही । मगर माफी कौन दे १ फिर तो जमींदार का भारी गुस्सा उसके सिर उतरा और गांव के लोग उजाड़े गये। न जाने कितने जाल-फरेब करके किसानों पर तरह तरह के मुकदमें चलाये गये, मार-पीट कराई गई और इस प्रकार उन्हें रुला मारा गया। यह एक ऐतिहासिक घटना है जिसे उस इलाके का बच्चा बच्चा जानता है। असेम्बली के चुनाव में धरहरा के ही एक, चलते-पुर्जे जमींदार, जो डिस्ट्रिक्टबोर्ड के चेयरमैन, पुरानी कौंसिल के लगातार मेम्बर और अन्त में प्रेसिडेन्ट भी रह चुके थे, बुरी तरह हारे । चुनाव में सभी किसानों ने दिल खोल के हमारा साथ दिया था। जिस जमींदार के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत जल्दी कोई करता न था और करने पर भी बुरी तरह हारता था, यहाँ तक कि एक बार एक कांग्रेसी उम्मीदवार भी स्वराज्य पार्टी के जमाने में अपनी जमानत जन्त करा चुके थे, वही हारा और उसो की जमानत जैसे-तैसे बचते बचते बची। यदि किसान दिल खोल के हमारा साथ न देते तो यह कम हो सकता था । इसीलिये हमारा सिर उनकी इस हिम्मत के सामने झुक गया । जमींदार की सारी खखारी और धमकी को पर्वा न करके उनने निराली हिम्मत दिखाई । नमींदार
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