पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१५१

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(६६ ) कोप होना भी नहीं चाहिये । यह तो मध्यम वर्ग की संस्थानों की ही चीज है कि रुपये जमा हों। उनका काम रुपयों के बिना चली नहीं सकता। मगर विपरीत इसके जनता की संस्थानों का असली कोप है उन पर जनता का पूरा पूरा विश्वास और प्रेम । फिर तो अन्न-धन की कमी हो सकती नहीं । हाँ, वह मिलता रहता है उतना ही जितने की समय समय पर जरूरत हो । न ज्यादा मिलता है और न कम । सिर्फ काम चलाऊ मिलता है। ईमानदार संस्थायें ज्यादा वसूनी खुद ही नहीं करती हैं। अगर कहीं ज्यादा हो गई तो खामखाह उसका सदुपयोग होना असंभव हो जाता है। कुछ न कुछ ऐसा उपयोग होता ही है जिसकी कोई जरूरत न हो । नतीजा यह होता है कि यह पाप छिपता नहीं और संस्था में घुन लग जाता है। पैसा जमा हो जाने पर सेवा की जगह एक तरह की महन्थी ले लेती है और कोढ़ी लोगों का प्रवेश उन संस्थानों में होने लगता है, जब कि पहले केवल धनो और परिश्रमी लोग ही पाते थे। हमारी उस जाँच में किसानों ने न सिर्फ सवारी और हमारे ग्वान-पान आदि का ही प्रबन्ध किया, बल्कि जाँच के हर केन्द्र में उनने यथा- शक्ति पैसे का भी पूरा प्रबन्ध किया जो चुपचाप शर्मा जी के हवाले कर दिया करते थे। हमें रेल से भी कभी कभी जाने का मौका मिला। पटने से तो रेल से हो गये थे। शहर में जाने पर सवारी और खान-पान का भी खर्च जरूरी था, इसीलिये उनने पैसे का प्रबन्ध किया था। जब एक जाँच खत्म करके रवाना होने लगते तो पैसे मिल जाते । हमें यह भी पता लगा कि वे पैसे सभी किसानों से थोड़ा थोड़ा करके ही वसूल किये गये थे। जाँच के केन्द्र में हमारे खान-पान या सवारी के खर्च का प्रबन्ध कर लेने पर जो बच जाता वही हमें मिलता। वही हमारी जरूरत के लिये काफी होता । जाँच का आखिरी काम हमने फतहपुर थाना, गया के सदर सब-डिविजन में किया था। वह निरा जङ्गली और पहाड़ी इलाका है। अमावाँ, महन्थ गया ग्रादि की जमींदारियाँ हैं । महन्थ ने तो किसानों को पस्त और पामाल कर दिया है। श्रमावाँ