सन् १९३३ ई० वाला जुलाई का महीना था । जहाँ तक याद है, १५ वीं जूलाई की बात है । तारीख इसलिये याद है कि किसान-सभा की तरफ से गया के किसानों की जाँच का काम हमने पहले पहल शुरू किया था । सो भी ऐन बरसात में । उसकी लम्बी रिपोर्ट की दुहरी प्रति तैयार करने में हमें महीनों लग गये थे। असल में अमावाँ टेकारी के जमींदार राजा हरिहरप्रसाद, नारायण सिंह की ही जमींदारी गया जिले में चारों योर पौली है । इसलिये उनके साठ गाँवों में जाके हमें कच्चे चिट का पता लगाना जरूरी था। जिले भर के साठ गाँवों से सारी जमींदारी की कलई पूरी तरह खुल जाती थी। इसलिये उतने गाँवो में जाना पड़ा । जब राजा साहब ने हमारी रिपोर्ट मांगी, ताकि हालत जान के कुछ कर सके, तो हमें मजबूरन दो प्रतियाँ तैयार करनी पड़ीं। बेशक, इस परीशानी का और बाद में बात-चीत वगैरह में जो वक्त बीता उसका कुछ भी नतीजा नहीं हुा । सबसे बड़ी बात यह हुई कि इस समूची घटना ने मेरे दिल पर यह अमिट छाप लगा दी कि जमींदारी मिटाने के सिवाय किसानों को अत्याचार और मुसीबतों से उबारने का और कोई रास्ता हुई नहीं । मेरे दिल में जो यह खयाल कभी कभी हो पाता था कि शायद गाँधी जी की बातें सही हों और जमींदार सुधर जायें, वह इस घटना के बाद सदा के लिये मिट गया और मैंने दिल से मान लिया कि जमींटारी ला-इलाज मर्ज है। "गया के किसानों की करुण कहानी" के नाम से उस रिपोर्ट की प्रधान के रूप में पीछे छापी भी गई। इन्हीं सब कारणों से और श्रागे लिखी वजहों से भी वह बरसात की १५वीं जुलाई अभी तक भूली नहीं। बातें पुस्तक
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