( ८१ ) $ खैर, यह पहुँचे, वह पहुँचे, ऐसा करते-कराते हम लोग वेतहाशा दौरे थे। लोग भी चारों ओर से अावाज सुनते ही दौड़ पड़े थे । जोई सुनता वही आवाज लगाता था। उस दिन हमने दिखला दिया कि सभा करने और उसे चलाने में ही हम आगे आगे नहीं रहते, मौका पड़ने पर दौड़ने में भी आगे ही रहते हैं। उस दिन कहाँ से उतनी ताकत हममें श्रा गई, यह कौन बताये ? मैं सब चीजें बर्दाश्त कर सकता हूँ। मगर एक भी मीटिंग से किसान निराश होके लोट जाय और मैं टीक समय पर मीटिंग में पहुँच न सकँ, यह बात मेरे लिये बर्दाश्त के बाहर है, मौत से भी बुरी है । उस समय मेरी मनोवृत्ति कैसी होती है इसे दूसरा समनी नहीं सकता। यदि हमारे कार्यकर्ता भी मेरी उस वेदना को समझ पाते तो भविष्य में ऐसी गलतियों न करते । उस मनोवृत्ति के फलस्वरूप मुझमें निराशा के बदले काफी चल श्राता है ताकि किसी भी प्रकार मीटिंग में पहुँच तो जाऊँ । क्योंकि यदि कुछ भी किसान मुझे वा देख लेंगे तो उनके द्वारा धीरे धीरे सबों में खबर फैन जायगी कि मैं मीटिंग में पहुंचा था जरूर । देरी का कारण सवारी हो थी। सभा-स्थान राष्ट्रीय स्कूल और कांग्रेस श्रीफिस के पास का मैदान था। मैं भी पहुँचा और लोग भी आये, गोकि बहुतेरे चले गये थे। मैंने उन्हें उपदेश दिया और देरी के लिये माफी मांगी। यह भी तय पाया कि अगले दिन फिर सभा होगी। रातों-रात खबर फिर दी गई। लोग अगले दिन' भी काफी पाये । श्रायें भी क्यों नहीं ? कोसी ने तो उनको कचूमर निकाल ही ली है। मगर बचे-बचाये रक्त को जमींदारों ने चूग लिया है । फेवल कंकाल सका है। यही हैं जमींदारी-प्रथा के मारे दमारे किसान ! ६
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