जान-बूझकर चढ़ाया जाता है। १८८० वाले विद्रोह में मोपलों ने दो जमींदारों पर धावा किया था। उनने तत्कालीन गवर्नर लार्ड बकिंघम को गुप्तनाम पत्र लिखकर जमींदारों के जुल्मों को बताया था और प्रार्थना की थी कि उन्हें रोका जाय, नहीं तो ज्वालामुखी फूटेगा। गवर्नर ने मालाबार के कलक्टर और जज की एक कमेटी द्वारा जब जाँच करवाई तो रिपोर्ट आई कि इन तूफानों के मूल में वही किसानों की समस्यायें हैं। पीछे यह भी बात ब्योरेवार मालूम हुई कि जमींदार किसानों को कैसे लूटते और जमीनों से बेदखल करते रहते हैं। इसीलिये तो १८८७ वाला काश्तकारी कानून बना।
१९२१ तथा उसके बाद मौलाना याकूब हसन मालाबार के कांग्रेसी एवं गांधीवादी नेता थे। मगर उनने भी जो पत्र गांधी जी को लिखा था उसमें कहते हैं कि "अधिकांश मोपले छोटे-छोटे जमीन्दारों की जमीनें लेकर जोतते हैं और जमीन्दार प्रायः सभी हिन्दू ही हैं। मोपलों की यह पुरानी शिकायत है कि ये मनचले जमीन्दार उन्हें लूटते-सताते हैं और यह शिकायत दूर नहीं की गई है"––
"Most of the Moplahs were cultivating lands under the petty landlords who are almost all Hindus. The oppression of the Jenmies (landlords) is a matter of notoriety and a long-standing grievance of the Moplahs that has never been redressed."
इससे तो जरा भी सन्देह नहीं रह जाता कि मोपला-विद्रोह सचमुच किसान-विद्रोह था।
१८३६ से १८५३ तक मोपलों ने २२ विद्रोह किये। वे सभी जमीन्दारों के विरुद्ध थे। कहीं-कहीं धर्म की बात प्रसंगतः आई थी जरूर। मगर असलियत वही थी। १८४१ वाला विद्रोह तो श्री तैरुम पहत्री नाम्बुद्री नामक जालिम जमीन्दार के खिलाफ था, जिसने किसानों को पट्टे पर