पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/११६

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( ६१ ) -सामने असलियत नाचने लगी । “जनता, अवाम (masses) एक हैं, इनमें कोई भी धर्म मजहन का फर्क नहीं । वे भीतर से दुरुस्त है।" यह दृश्य मैंने देखा ! इसने किसान-सभा के काम में मुझे बहुत बड़ी हिम्मत दी और पाज जब कि बड़े से बड़े और क्रान्तिकारी से भी प्रान्तिकारी कहे जाने वाले हिन्दु मुसलमान तनातनी से बुरी तरह घबरा रहे हैं, भविष्य के लिये निराश हो रहे हैं, मैं निश्चिन्त हूं। मैं इनको चातें सुन के हँसता हूं। इन्हें इन झगड़ों की दवा मालूम नहीं है। उसे तो मैंने न सिर्फ 'किताबों मे पाया है, बल्कि किशनगंज के इस दौरे में देखा है। इस प्रकार कुछ दूर जाने के बाद बैलगाड़ी छोड़ देने की नौबत आई । असल में बैल थे तो कमजोर और रास्ता ऐसा वेहंगा था कि न सिर्फ बैलगाड़ी के पहिये कीचड़ में डूब जाते थे, अक्कि बैलों की टांगें भी। जब वे चल न पाते तो गाड़ीवान उन्हें पीटता था। यह दृश्य बर्दाश्त के बाहर था। मगर इतने पर भी बैल आगे बढ़ पाते न थे। बढ़ते भी अाखिर कैसे ? रास्ता वैसा हो तब न । इसलिये तय हुआ कि गाड़ी छोड़ के पैदल चलें । नहीं तो रास्ते में ही रह जायगे और मस्तान के गांव तक भी अाज पहुँच न सकेंगे। फलत: कपड़ा लत्ता एक आदमी के सर पर गहर चौध के रख दिया गया और जूते हाथ में लेके हम ममी उत्तर पन्छिम रुख पैदल ही बढ़े। कीचड़ में फंसते, पानी पार करते, गिरते पढ़ते हम लोग बराबर बढ़ते जाते थे। यह भी मजेदार यात्रा थी। हममें जरा भी मनहूजी नजर न आई । हंसते हुए चल रहे थे। यह कितना सुन्दर श्रेजर ट्रि' "था, सैर सपाटा था। आखिर को वह पानी से लयाय और वृष्टि से भी भीगते भागते शाम होते न होते हम लोग मस्तान के गांव पर पहुंची । तो गये। मत्तान साहब खबर पाते ही दोहे दोडापे हाजिराये और हम समी गले गले मिले । शाम का तो वक्त था ही। हम लोग पके मादे भी थे। तो रात में कुछ खाता पीता न था, निधार गार के दूध के और यः नानक मिल सकता न था। अगर रहते लेखबर होती तो उसका नाम शारद