पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/११३

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सभी के दिलों के तार साथ ही मनक उठे। फलतः सभी एक ही हाँ में हाँ मिलाते, सुर में सुर मिलाते और एक ही राग गा उठते हैं कि "कमाने "वाला खायगा, इसके चलते जो कुछ हो" | इस राग में हिन्दू मुसलिम भेद खामखाह मिट जाता है । इस पवित्र धारा में हिन्दू मुसलिम कलह की -मैल बिना धुले रही नहीं सकती यह पक्की बात है । इसका ताजा ताजा नमूना हमारी आँखों के सामने उस दिन पांजीपाड़े में नजर आया और हमें भविष्य के लिये पूरी उम्मीद हो गई कि गरीबों के दुख जरूर करेंगे और उनके अच्छे दिन जरूर आयेंगे, सो भी जल्द से जल्द, अगर हमने अपना यही रास्ता, यही काम जारी रखा । खैर, तो किशनगंज लौटने के बाद, जैसा कि पहले कहा है, एक दिन वहाँ ठहर के उस सब डिविजन की देहात का अनुभव करते और मजा लूटते पं० पुण्यानन्द जी के गाँव पर पहुँचने की बात तय पाई । उनका गाँव जहानपुर अन्दाजन २५-३० मील के फासले पर है । बरसात का -समय था। देहात की सड़कें तो योंही चौपट होती हैं। तिसपर खूबी यह कि वह इलाका सबसे पिछड़ा हुआ है। इसलिये रास्ते का भी ठिकाना न था, सवारी का तो पूछना ही नहीं। बड़ी दिक्कत से बैलगाड़ी मिल सकती थी । मगर रास्ता खराब होने से बैल कैसे गाड़ी खोचेंगे यह पेचीदा सवाल था । एक तो ऐसी दशा में उन्हें गाड़ी में जोतना कसाईपन होगा। दूसरे वे चल सकते नहीं चाहे हम कितने भी निर्दय क्यों न बनें । अमल में गाड़ी या हल में जोतने के समय हम लोग वैलों के साथ ठीक वही सलूक करते हैं जो जमींदार हम किसानों के साथ वर्त्तते हैं । अगर जमींदार उन्हें श्रादमी न समझ लावारिस पशु मानते हैं, और इसीलिये वे खायें पियेंगे या नहीं इसकी जरा भी फिक न कर उनकी सारी कमाई जैसे तैसे वसूल लेने की फिक्र करते ही रहते हैं, तो किसान अपने बैलों के साथ भी कुछ वैसा ही सलूक करते है, हालाँकि किसानों के लिये जमींदारों जैसी निर्दयता गैर मुमकिन है। वे बैलों के खाने पीने की कोशिश तो करते हैं । वेशक इन कमाई का अन्न पास रखके उन्हें भूमा, पु माल वगैरह वही चीजें