पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१०८

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stud ( ५३ ) दौड़ के वहाँ गया और जैसे तैसे उन्हें जगा लाया। उनके आते ही हमने अपने अपने सामान निकाले। मेरा समान कुछ ज्यादा था। मगर उस समय स्टेशन तक सामानों को पहुँचाने वाला कहाँ मिलता १ फलतः हमने गधे की तरह अपने अपने सामान सर पर लादे। मेरी सहायता साथियों ने और साथ के आदमी ने भी की। इस तरह लदफन के हमने फिर वही "किक मार्च" शुरू किया। क्योंकि ट्रेन आ जाने का खतरा था। हमें अपनी घड़ी पर विश्वास होता न था। संकट के समय ऐसा ही होता है। अत्यन्त विश्वासों पर से भी विश्वास उठ जाता मगर जब स्टेशन पहुंचे और वहाँ की घड़ी में देखा कि पूरे दस बजे है तब हमारी जान में जान भाई ! फिर तो हमारी खुशी का ठिकाना न रहा । निश्चित हो के हमने हाथ पाँव वगैरह धोये, कपड़े बदले और देह साफ़ की। इतने खतरे का काम हमने किया, ऐसी लग्बी राह, जो पाठ मोल से कम न थी, हमने डेढ़ घंटे में तय की और बाजार में पन्द्रह मिनट ठहरे भी, यह याद करके हमारा श्रानन्द बेहद्द बढ़ गया। खूबी यह कि हमें न तो कोई यकावट मालूम होती थी और न परीशानी । सख्त से सख्त काम और मिहनत के बाद भी यदि सफलता मिल जाय तो सारी हैरानी हवा में मिल जाती है । लेकिन यदि थोड़ी भी परीशानी के बाद निकल होना पड़े तो ऐसी थकावट होती है कि कुछ पूछिये मत । और हम तो इस साहस (adventure) के बाद सफल हो चुके थे। तब थकावट क्यों होती। कम से कम हमें उसका अनुभव क्यों होता ? ,