पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१०७

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( ५२ ) मिलता था । बहुत दूर जाने पर एक गाँव में एकाध अादमी मिले जिनने फासला दूर बताया । बहुतेरे लोग तो रास्ते में हमें दौड़ते देख या पैरों की आहट सुन सटक जाते थे। उन्हें भय हो जाता था कि इस घोर अँधियाली में चोर डाकुयों के सिवाय और कौन ऐसी दौड़ धूप करेगा। हम भी ताड़ जाते और हँसते हँसते आगे बढ़ जाते थे? रास्ते में एक बड़ी मजेदार बात हुई । हमने महाभारत में पढ़ा था कि मवदानव ने ऐसा सभा भवन बनाया कि दुर्योधन को सूखी जमीन में पानी का और पानी में सूखी जमीन का भ्रम हो जाता था। इससे पांडवों के कुछ आदमी उस पर हँस पड़े थे। इसी का बदला उसने पीछे लड़ाई के मौके पर लिया था। मगर हमें खुद इस भ्रम का शिकार होना पड़ा। अन्धेरी रात में पासमान साफ होने के कारण तारे खिले थे। फलतः रास्ता चमकता था । नतीजा यह हुया कि हम लोगों को सैकड़ों बार सूखी जमीन में पानी का भ्रम हो गया और हमने धोती उठाली । पर, पाँव सूखी जमीन पर ही पड़ता गया। इसके उलटा पानी को सूखी जमीन समझ हम वेधड़क बढ़े तो घुटने तक डूब गये । जल्द बाजी और दौड़ की हालत में यह गौर करने का तो मौका ही नहीं मिलता था कि पानी है या सूखी जमीन । मगर इसमें हमें खूब मजा आता था। मजा तो अपने दिल में होता है। वह बाहर.थोड़े ही दोता है। हम लथपथ थे। कीचड़ से सारा बदन ,लिपटा था। मगर धुन थी ठीक समय पर पहुँच जाने की । इसीलिये सारी तकलीफ भूल गई और हम हँसते हँसते बढ़ते थे । कुछ दूर जाकर जब पहली सड़क मिली तब कहीं हमें यकीन हुश्रा कि ठीक रास्ते जा रहे हैं । मगर अभी प्रायः चार मील चलना था। अतः हमें ताँस लेने को फुर्सत भी कहाँ थी। खैर, दौड़ते दौड़ते दस बजे से पहले ही बाजार में पहुँच ही तो गये। पूछने पर पता चला कि जहाँ सामान है उसे बन्द करके हमारे परिचित सजन घर सोने चले गये। क्योंकि गाड़ी का समय नजदीक देख उनने मान लिया कि हम अब न पायेंगे। उनका घर भी कुछ फासले पर था। यह दूसरी दिफत पेश आई। खैर, हममें एक "