पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१०५

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( ५० ) । लालटेन साय में ली ही नहीं। खैर, मोर उनकी ससुराल में पहुँची। वे उतर गये। ड्राइवर अागे वैन । उनने ताकीद कर दी कि खून प्रायन ते ते जाना। रास्ते में गड़बड़ी न हो। वत, वह स्टेशन की ओर चल पड़ी। मगर रात्वा वह न या जितले हन दिन में आये थे। किन्तु सोलहों आने नई तड़क थी। रात के साढ़े सात बज रहे थे। हमें पता नहीं किधर जा रहे थे। एकाएक कीचड़ में मोर ती। वर्मा के दिन तो थे ही। तड़क भी कञ्ची थी। ब्राइवर ने जोर मारा । मगर नतीजा कुछ नहीं । बहुत देर तक मोटर की कुश्ती उन कीचड़ से होती रही। हम घबरा रहे थे। धीरे-धीरे निराशा बढ़ रही थी। हने शक भी हो रहा था कि ड्राइवर रात में जाना नहीं चाहता है। इसीलिये ईमानदारी से काम नहीं कर रहा है। मगर करते क्या । बोलते तो बात और भी बिगड़ती। वह इनकार कर देता तो.लेशन पहुँचना असंभव था। श्रातिर जब पड़ी में हमने गढ़े पाठ देखा तो मोर ते निराश हो के पैदल चलने की सोचने लगे। परन्तु एक तो भाझे की अन्वेरी रात, दूसरे रात्ता बिलकुल ही अनजान, तीसरे नाय में लालटेन भी नहीं। मोर के ख्याल से हमने लालटेन की जलरत न समझी और अब "चौवे गये इवे बनने, दूवे बन के लौटे" वाली बात होगई ! फिर भी मुके तो चाहे जैसे हो स्टेशन पहुँचना ही था। अगले दिन का प्रोग्राम जो था। आज तक मैंने ऐसा कमी होने न दिया कि मेरा निश्चित प्रोग्राम फेलो जाये। मैंने हमेशा अपने कार्यकर्ताओं से कहा है कि यकीन रखे, मेरा प्रोग्राम फेल हो नहीं सकता। या तो मैं पहले ही खबर दे दूंगा कि किसी कारण ते श्रा नहीं उकता; ताकि समय रहते लोग सजग हो जायें । नहीं तो मैं खुद ही पहुँच जाऊँगा । और अगर ये दोनों बातें न हो सकी तो मेरी लाश ही वहां जरूर पहुंचेगी। इनका नतीजा यह हुआ है कि मेरे प्रोग्राम के बारे में किसानों को पूरा विश्वास हो गया है कि वह कभी गड़बड़ होने का नहीं। इसी के मुताबिक मुझे तो स्वादस बजे रात की ट्रेन पकड़नी ही थी। मगर पत्ता मोटे अन्दाज से सात मील से कम न था। क्योकि हम उत्तर