( ४६ ). उन लोगों का स्वराज्य तो फौरन ही असेम्बली, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड श्रादि की सेम्बरी गैरह के रूप में आने वाला था जिसमें किसानों की मदद निहा- यत जरूरी थी। उसके बिना उन्हें यह स्वराज्य मिल सकता था नहीं। यही तो ठोस बात थी जिसे वे लोग खूब समझते थे। मोटर वाले बाबू साहब की भी कांग्रेस भक्ति का पता मुझे पूरा पूरा तब लगा जब मैंने उन्हें डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के लिये कांग्रेसी उम्मीदवार एक मुसलमान सजन के खिलाफ महावीरी झंडा वाली मोटर में बैठ के बुरी तरह परीशान देखा.! अन्त में जब ज्यादा देर हो गई और मैं घबराया तो उन लोगों ने कहा कि बाबू साहब की मोटर हमने मंगनी करली है, आपको उसीसे पहुँचा देंगे। इस पर मैं चौंक के बोला कि मैं एक जमींदार की मोटर में चलूँ और फिर भी किसान सभा करने वाला बन । यह नहीं होने का । इस पर वे लोग थोड़ी देर चुप रहे। मैं भी परीशान था। आखिर इन्तजाम उन्हें ही करना था। अब देर भी हो चुकी थी। लालटेन बिना चलना गैरमुमकिन था और मेरे पास खुद लालटेन यी नहीं। नहीं तो भाग निकलता । जब फिर मैंने सवाल उठाया तो उनने वही मोटर वाली बात पुनरपि उठाई और बोले कि यह तो हमारा इन्तजाम है। इसमें श्रापका क्या है ? आपने तो मोटर माँगी है नहीं । मैंने उन्हें इसका. उत्तर दिया सही। मगर वे तो तुले थे और मैं अत्र लाचार था । कुछ दिन रहते यदि यह बात उठती तो में अकेला ही भाग जाता । पर, अब तो शाम हो रही थी। वे लोग भी मेरे लभाव से परिचित थे। इसीलिये पहले तो मोटर का सवाल उनने उठाया नहीं, और पीछे जब देखा कि अब मैं अकेला भाग नहीं सकता, तो उस सवाल पर डट गये । मैंने भी अन्त में कमजोरी दिखाई और मोटर से ही जाने की बात ठहरी ! रात के आठ बजे हम उधों को लेके मोटर चली । बाबू साहब हो उसे चला रहे थे । मालूम हुआ, नजदीक में ही उनको मनुराल है । उन्हें वहीं उतार के मोटर हमें स्टेशन ले जा रगो । मोटर में चलने के कारण ही हमने
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