[ २) हाथ से समूल नाश हो गया। परशुराम जीने राजाओं का शीरमान नाज्ञा किग किन्तु इन्हों ने देह बल विद्या धन प्राण की कौन कई कीर्ति का भी नाश कर दिया। वाल्हन ले जयसिंह के काल में सन् ११४८ ई० में राजतरंगिणी बनाई। यह कारखीर के अमात्य चम्पक का पुत्र था और इसी कारगा से इसको इस अन्य को बनाने में बहुत सा विषय सहज ही में मिला था। इसके पीछे जोन राजने १४१२ में राजावली बनाकर कल हर से लेकर अपने काल तक के राजाओं का उस में वर्णन किया। फिर उसके शिष्य श्री बरराज ने १४७७ से एका ग्रन्य और बनाया। पकबर को सलय से प्राधसष्ट से इस इतिहास का चतुर्थ खंड लिखा । इस प्रकार चार खंडों में यह कश्मीर का इतिहास संस्कृत में लोकवद्ध विद्यमान है। महाराज रनजीत सिंह के काल में जान मैकफेयर नायक एका टूरोपीय विद्वान ने कश्मीर से पहिले पहल इस घन्य का संग्रह किया । विल्सन माश- व ले एशियाटिक निसर्चेज़ में इसके प्रघम छ सर्ग का अनुवाद भी किया था। सी गाजत गिदी ही ले यह इतिहास मैंने शिरता है। इल में बोषश राजाओं को समय चौर बड़ी बड़ी घटनाघों का वर्णन हैं। माछा है कि कोई सश को सविस्तर भी निर्माग्य करको प्रकान्य करेगा। राजतरंगिची छोड़ कर और और श्री वा अन्यों पीर ले रहीं से रस में संग्रह किया है। यथा पाइने धकवरी, ... ... ... का फारसी इतिहास, एशियाटिक सोसाइटी के पत्र; विलसन, विल्फर्छ, प्रिंसिप, कनिंगहस, घार, विलिअसम, गोशेन और ट्रायर प्रादि के लेख, वावू जोगेशचन्द्रदत्त की मान- रेज़ी तवारीख, दीवानलपारास जी की फारसो तवारीख प्रादि ।। बहुतों का सत है कि कश्मीर शब्द कश्यपमेक का प्रपत्रंश है। पहले पहल कश्यप सुनि ने अपने तपोबल से इस प्रदेश का पानी सुरक्षा कार इस को बनाया था। इन के पीछे गोनई तक अर्थात् कलियुग के प्रारम्भ तक राना- ओं का कुछ पता नहीं है । गोनर्द से ही राजाओं का नाम शृङ्खलावद मिल- ता है। सुलल्यान लेखकों ने इस के पूर्व को भी कई नाम लिखे हैं किन्तु वे सब ऐसे अशुद्ध और प्रति शब्द में रक्षा उपाधि विशिष्ट हैं कि उन नामों पर श्रधा नहीं होती।
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