सकते पर नौवाब माहिश को अपनी अंगरेज़ी का ऐसा कुछ विश्वास था कि अपने मुंह से कोवल अपने ही को नहीं बरन अपने दोनों लड़कों को भी अंगरेज़ी, अरबी, ज्योतिष, गणित आदि ईखर जाने कितनी विद्याओं का पंडित बखान गए । नौवाब साहिब ने कहा कि हम ने और रईसों की तरह अपनी उमर खेल कूद में नहीं गंवाई बरन लड़वापन ही ले विद्या के उपा- जैन में चित्त लगाया और पुरी पंडित और कवि हुए। इस सिवाय नौवाक साहिब ने बहुत से राजभक्ति के बाक्य सी कहे। वाइसराय ने उत्तर दिया कि हम आप को अंगरेज़ी विद्या पर इतना सुबारकबाद नहीं देते जितना अंगरेजों के समान प्राप का चित्त होने के लिये। फिर नौवाद साहिब ने वाहा कि मैंने इस भारी अवसर के वर्णन में अरबी और फ़ारसी का एक पद्य अन्य बनाया है जिसे मैं चाहता हूं कि किसी समय श्रीवुत को सुनाऊ । श्रीयुत ने जवाब दिया कि सुझे भी कविता का दड़ा अनुराग है और मैं आप सा एका भाई-कवि ( Brother-poet ) देख कर बहुत प्रसन्न हुपा, और आप की कविता सुनने के लिये कोई अवकाश का समय अवश्य निकालंगा। २८ तारीख को सब के अन्त में महारानी तंजौर वाइसराय से सुलाकात की पाई। ये तास का सब वस्त्र पहने थीं और मुंह पर भी तास का नकाब पड़ा हुआ था। इस को सिवाय उन के हाथ पांव दस्ताने और मोजे से ऐसे ढके थे कि सब के जी में उन्हें देखने की इच्छा ही रह गई। सहारानी के साथ में उन के पति राजा सखाराम साहिब और दो लड़कों के सिवाय उन की अनुवादक मिसेस फर्थ भी थीं। महारानी ने पहले आकर वाइसराय से हाथ मिलाया और अपनी कुर्सी पर बैठ गई। श्रीयुत वाइसराय ने उन को दिल्ली आने पर अपनी प्रसन्नता प्रगट की और पूछा कि आप को इतनी भारी यात्रा में अधिक कष्ट तो नहीं हुआ। महारानी अपनी भाषा की बी- लचाल में वेगस भूपाल की तरह चतुर न थीं इस लिये ज़ियादा बातचीत मिसेस फर्थ से हुई जिन्हें श्रीयुत ने प्रसन्न हो कर “ मनभावनी अनुवादक" काहा वाइसराय की किसी बात के उत्तर में एक बार महारानी के मुंह से “यस" निकल गया जिस पर श्रोयत ने बड़ा हर्ष प्रगट किया कि सहारानी अंगरेजी श्री बोल सकती हैं, पर अनुवादक मेम साहिब ने कहा कि वे अंग- रेजी में दो चार शब्द से अधिक नहीं जानती। इस वर्णन वो अन्त में यह लिखना अवश्य है कि श्रीयुत वाइसराय लोगों
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