[ ५३ ] जेहि सर सुभग सुतिा मुक्ताफल सुकृत विमल जल पोजे । सो सर छाडि कुबुद्धि विहंगम इहां कहा रहि कीजै ॥३॥ जहां श्री सहस सहित नित क्रोडत सोभित सूरज दास । अवन सुहाई विषै रस छीलर वा समुद्र की आस ॥४॥ फिर तो इनकी सामर्थ्य बढ़तीही गई और इन्हों ने श्री मद्भागवत को भो पदी में बनाया और भी सब तरह के भजन इन्हीं ने बनाए इन के श्री गुरु इन को सागर कहकर पुकारते थे इसी से इन ने अपने सब पदों को इकट्ठा करके उस ग्रन्थ का नाम सरसागर रक्खा जब यह वृद्ध हो गए थे और श्री गोकुल में रहा करते थे धीरे धीरे इनके गुन शहनशाह अकबर के कानों तक पहुंचे उस समय ये अत्यन्त बृद्ध थे और बादशाह ने इन को बुलवा भेजा और माने की प्रांजा किया तब दुनने यह भजन बनाकर गाया। सनर करि साधो सो प्रीति। फिर इनसे कहा गया कि कुछ शहनशाह का गुणानुबाद गाइए उसपर इन्हों ने यह पद गाया । केदारा-नाहिंन रह्यो मन में ठौर । नन्द नन्दन अछत कैसे आनिये उर और ॥१॥ चलत चितवत दिवस जागत सुपन सोवत राति । हृदत तें वह मदन मूरति छिनु न इत उत जाति ॥२॥ कहत कथा अनेक ऊधो लोग लोभ दिखाइ । कहा करों चित प्रेम पूरन घट न सिंधु समाइ ॥३॥ श्यामगात सरोज आनन ललित गति मृदु हास । सूर ऐसे दरस कारन मरत लोचन खास ॥४॥ फिर संवत् १६२० के लग भग श्री गोकुल में इन्हों ने इस शरीर को त्याग किया सूरदास जी ने अन्त समय यह पद किया था। बिहाग-खंजन नैन रूप रस माते । अतिशय चारु चपल अनियारे पल पिंजरा न समाते । चलि चलि जात निकट श्रवनन के उलटि फिरत ताटंक फंदाते । सूरदास अंजन गुन अटके नातरु अब उड़िजाते ॥ दोहा-मन समुद्र भयो सूर को, सीप भए चख लाल । हरि सुक्ताहल परतहीं, मूंदी गए तत काल ॥
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