[ ३७ ] पनो अनिच्छा प्रकाश किया तथापि देवादेशानुसार ब्राह्मण उस कन्या की उनले पास छोड कर चला पाया। जयदेव जी ने जब उस कन्या से पूछा कि तुम्हारी क्या इन्का तो पहावती ने उत्त- दिया कि आज तक हम पिता को शाज्ञा ले थे अब आप की दासी हैं। प्रहण कीजिए वा परित्याग को जिप में ग्राप का दामन छोड़गी । जयदेव जीनेस कन्या के सुख से यह सुन कर प्रसन्न हो पर उसका गणिग्रह किया। अनेक लोगों का मत है कि जयदेव जी ने पूर्व में एक विवाह किया था उस स्त्री के मृत्यु के पीछे उदास हो कर पुषोतम क्षेत्र में रहते थे। पन्नावती उनकी दूसरी स्त्री थी। इन्ही पक्षावती के समय, संसार में आदरणीय कविता रत्न का निकष गीत- गोविन्द काव्य जयदेव जी ने बनाया। गीतगोबिन्द के सिवा जयदेव जी की और कोई कविता नहीं मिलती। प्रसन्न राघव पक्षधरी चन्द्रालीका और सीताबिहार काव्य विदर्भ नगर वासी कौंडिन्य गोनोव राहादेव पति को पुत्र दूसरे जयदेव जी के बनाए हैं लिनका काव्य में पीयपवर्ष और न्याय में पक्षधर उपनाम था। वरच अनेक विद्वानों का मत है कि तीन जयदेव हुए हैं यथा गीतगोविन्दकार, प्रसन्न- माधवकार औ चन्द्रालोककार जिनका नामान्तर पीयूषवर्ष है। पहावती के पाणिग्रहण को पीछे जयदेव जी अपने स्थापित इष्टदेव को सेवा निर्वाहार्थ द्रव्य एकत्र करने की इच्छा से वा तीर्थाटन और धर्मोपदेश को इच्छा से निज देश छोड कर बाहर निकाले। शोहन्दावन की यात्रा करको जयपुर वा जयनगर होते हुए जयदेव जी मार्ग में चले जाते थे कि डाकु ने धन के ले भ से उन पर आकरण किया और केवल धन ही नहीं लिया बरच उनके हाथ पैर भी काट लिए । कहते हैं कि किसी धार्मिक राजा के कुछ भृत्य लेग उसो मार्ग से जाते थे। उन लोगों ने जयदेव जी की यह दशा देखा और अपने राज्य में उनको उठा ले गए। वहां औषध इत्यादि से कुछ इनका शरीर स्वस्थ हुा । इसोरसर में वे चीर भी उस नगर में पाए और साध वेश से उस नगर को राजा के यहां उतरे। तब राजा के घर में जयदेव जी का बड़ा मान था और दान धर्स सव इन्हीं को हारा होता था। जयदेव जो ने इन साधु वेशधारी चोरों को अच्छी तरह पह- चाग लिया और यदि वे चाहते तो भली भांति अपना बदला चुका लेते परन्तु उनको सहज उदार और दयातु चित्त से इस बात का ध्यान तक न
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