[ ३६ ] कविता का चंद के समय तक जगत् में आदरणीय होना असभव है।-गो- वईन ने अपनी सप्तशती में “ सेन कुल तिन्तक अपति" इतनाही लिखा नास कुछ न दिया किन्तु उस को टीका "प्रवरसेन नामा इति” लिखा है। अन यदि प्रबरसेन हेमन्तसेन या विजयसेन का नामान्तर मान लिया जाय और यह भी मान लिया जाय कि जयदेव जी को कविता बहुत ज़- ल दी संसार में फैल गई थी और समय प्रकाश का बहाल का समय भी प्र- माण विाया जाय तो यह अनुसान हो सकता है कि बिजयसेन के समय में वा उस से कुछ ही पूर्व सन् .१०२५ से १०५० तक में किती वर्ष में जयदेव जी का प्राकव्य है और ऐमा हो मानने से अनेक विद्वानों की एक वाक्ता भी होती है यहां पर समय विषयका जटिल और नीरस निर्णय जो बंगला ओर अगरेज़ो ग्रन्थों में है वह न लिनन कर सार लिख दिया है । इस से " जयदेव चरित” इत्यादि बंगला ग्रयों में जो जयदेव जी का समय तेरह- वों वा चौदहवीं शताव्दी लिखा है वह अप्रसारण होकर यह निश्चय हुमा कि जय देव जी ग्यारहवीं शताब्दी के प्रादि में उत्पन्न हुए हैं । जयदेव जो वो बाल्यावस्था का सविशेष वर्णन कुछ नहीं मिलता। अत्यन्त छोटो अवस्था में यह मात्ट पिट बिहीन हो गए थे यह अनुमान होता है क्योंकि विष्णु लामि चरितामृत के अनुसार यो पुरुषोत्तम क्षेत्र में उन्हों ने उनी सम्प्रदाय को किमी पण्डित से पढ़ी थी । इन के विवाह का वर्णन और सी अज्ञात है । एक वाह्मण ने पनपता होने के कारण जगन्नाथ देव को बड़ो भाराधना कर के एक कन्या रतलास किया था । इस कन्या का नास पलावती था । जब यह कान्या विवाह योग्य हुई तो जगन्नाथ नी ने खत में उसके पिता को पाना किया कि हमारा भक्त जयदेव नामक एका- ब्राह्मण अमुक वृक्ष के नीचे निवास करता है उसको तुम अपनी कन्या दो। ब्राह्मण कन्या को लेकर जयदेव जी के पास गया । यद्यपि जयदेव जी ने वियोकालि कामुक्खवासं सुसुद्ध। जि. सेत बंध्योति मोज प्रबंधं ॥ सतं डंडमाली उन्लाली कवित्तं । जिनै बुद्धि तारंग गांगा सरित्तं ॥ जय व कवी कब्बिरायं । जिनें केवबं कित्ति गोविंद गावं ॥ गुरं सब्ब कब्बी लह चंद कब्बी । जिने दर्सियं देवि सा डांग हब्बी ॥ कवी कित्तिकिसिउकत्ती सुदिक्खी । तिनैकीउचिष्टीकवीचंद मक्खी ॥
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