[ ३.] मिथ जर्जी श्राद समाप्त करने के अन्तर प्राचार्य से शास्त्रार्थ करने में प्रवृत्त हुए और उस की स्त्री सरम वाणी जि सरस्वती का साक्षात अवतार कहते घे सधयस्थ हुई दोनों ने सौ दिन तक शास्त्रार्थ हुमा सन्त में खण्डनसिश्च का पराजय हुशा और सन्यासाश्रम को खीकार किया पुराण में मंडनमिश्च को नया का अवतार लिखा है। जव मंडनमिश्र सन्यारा लेने लगे उरा के पन्लेही सरसवाणी अपना पूर्व शरीर छोड कर ब्रह्मलोक को जाने लगी शंदराचार्य ने बनदुर्गा मंत्र से उस को पाकर्षण किया और कहा कि सुझ से शास्त्रार्थ करके चली जाओ उसने कहा कि मैंने वैधव्य के भय से अपने पति के सन्यासी पन्ले ही पृथ्वी को त्याग को प्रव पृथ्वी पर नहीं पा राकती क्योंकर तुम से शास्तार्थ करू आ- चार्य ने उत्तर दिया भूमि से आकाश में छः हाथ दूरी पर खडी होके सुझ से शास्त्रार्थ कर उसने भाचार्य ६ कहने के अनुसार शाततार्थ किया अन्त में हार गई तब उमने सोचा कि यह सन्चासी है इस को काम शास्त्र नहीं माता होगा इस में जो इस पूछेगे तो उत्तर नहीं दे सकेगा फिर मरखति ने कहा कि कामशास्त्र में विवाद करो शंकराचार्य ने इस वचन को सुनकर चप हो गये और कहा कि छः महीने के अनन्तर सम से इसी शास्त्र में विवाद कफगा। तब शंकराचार्य अमृतपुर में गये वहां का गजा मर गया था इस का नाम अमर करके प्रमिद्ध था उस का शरीर जलाने के लिये चिता पर रक्खा था इतने में शंकराचार्य ने अपने शरीर से प्राण निकाल कर परकाय प्रवेश विद्या के वन से उम राजा के मृत शरीर में प्रवेश किया और शिष्यों ने श्रा- चार्य का शरीर एक पहाड की गुफा में रवखा कहीं लिखा है एस राजा की मौ रानी थीं उन में ज बडी थी उसने देखा कि इस पति की चेष्टा पहले ऐसी नहीं है केवल पहला शरीर मात्र वही है और इसका आत्मा किसी योगो का जान पड़ता है नहीं तो इतना चातुर्य इम में वाहां से होता रानी ने आज्ञा दी कि नहां कही मृत शरीर मिले उसी क्षण उस को जन्ना दो राजदूतों ने प्राचार्य का शरीर गुफा में पाया और उस को जलाने के लिये चितापर रक्खा और भाग ल गादी प्राचार्य के शिष्यों ने देख कर राजा को स्तुति की उसका अभिप्राय यही था कि राजा तू शंकराचार्य है दूमरा कोई नहीं उसी क्षण राजा को शरीर से प्राण ने निकल कर उस चिता पर रक्खे
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