[ २५ इस प्रकार स्वामी रामानुज पाचार्य एक सौ बीस वर्ष पछीपर रहे पौर धारो षोर वैष्णव संप्रदाय का प्रचार करके सव शिथयों को भगवद्भक्ति का उपदेश करके मात्र सुदी १० को परम धाम पधारे इनके पीछे रंगनाथ जी के मन्दिर का अधिकार पराशर को मिला और दाशरथि पूर्णाचार्य गोविन्द गैर-रुक ये चार मत माखा प्रवर्तक हुए । इस संप्रदाय के मुख्य बड़े २ लोग शठकोपाचार्य, रंगेश, बैकंटेश, चरट, धकुलाभरण, सुन्दर, यासुमाचार्य वररंग, पूर्णाचार्य, गोठीपूर्ण, मासभन्द्र, माधवदास, कासार, भक्तिसार, फणिवाष्णा, कुलशेखर, भट्टनाथ, पद्यराज और अनन्ताचार्य प्रादिका है। दानपात्रादिकों से और दक्षिण राजाओं के घर के लेखों मे नियय होता है कि 'सयोसन १.१.वा इसके पास पास किसी संवत में खामी का जन्स हुत्रा था षौर हादशशताब्दी पूरे पूरे भोग में ये वर्तमान थे। इनका मत विशिष्टाहत है और उपास्यदेव साकार ब्रह्मनारायण हैं। ये भुजापर तप्त शंखचका की छाप देते हैं। हिन्दोलान के सब प्रान्त में स मत के लोग मिलते हैं। पौर बहुत बड़े बड़े पंडित पस सत में हुए हैं। बगल और तिङ्गल ये दो शाखा इस सत की वहुत परिध हैं पीछे तो रामनन्द प्रादि अनेक शाखा इस को हुई हैं । गक संप्रदाय के वैष्णष श्री वैशव कहलाते हैं श्रीशंकराचार्य का जीवन चरित्र । इन्दीवरदलश्याममिन्दिरानन्दकन्दलम् । वन्दारुजनमन्दरं वन्देहयदुनन्दनम् ॥ धन्य वह पर है जो अपनी दृष्टि में अनेक पद्भुत शक्ति के मनुष्यों को उत्पन्न करता है और उनके द्वारा लोगों की पहली चाल चलन को बदल देता है फिर कुछ काल के अनन्तर दुसरे को उत्पन्न करता उससे भी वैसा हो कराता है उसी प्रकार से अपने दृष्टिक्रम को निरन्तर दलाता है। देखो करन्यूनाधिक ११.. वर्ष हुए इस खारे भारतवर्ष में वौशमत फैल गया था और लोग उसी मत-पर चलते थे और जो उस मत को स्वीकार करने में पास ये उनको अनेक प्रकार के शेष सहने पड़ते थे प्रायः कन्या-
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