[ ४३ ] पत्थर की चटान में यह सफल सम्बन्धी लिपि है "राणा श्री अमर सिंह जी सुतश्री वागजीसुतश्री सबल सींहजी की जात्रा सफल संवत सतरै सै अगरोत- रामंगसेर सुद ७ सो मे लखन्त प्रोत जी जवारादास पधारो संवत १७७८ 1 ५. छोटे २ शिखर के दक्षिण, उत्तर में दो मन्दिर, दक्षिण मन्दिर की शिखर कुछ फूटी है और मन्दिर का हार दो किष्क ऊंचा है सीढ़ी के योग से चढ़ते हैं। भीतर एक तल घर में वृन्दादेवी (कापातालदेवी) विराजती है। घुमाव की.वारह पक्की सिढी उतर कर नीचे दर्शन करना होता है। देवी की मूर्ति शृङ्गवर (संगमरमर) पाषाण की अष्टभुजी एवं सिंह वाहिनी ९१ इंच ऊंची और 2 इंच चौड़ी है पासही एक शृङ्गवर की छोटीसी चौकी पर श्रीराधिका जी के चरण चिन्ह है चौकी के बट पर यह पद्य लिखा है। तप्तकाञ्चनगौराणि राधेचन्दावनेश्वरि । वृषभानुसुतेदेवि प्रणमामिहरिप्रिये ॥ एक सोरी जिसका निकाम बाहर की ओर उत्तर दिशा में है उसके ऊपर यह प्रशस्ति है। __“संबत ३४ श्रीशकवन्ध अकबर महाराज श्री कर्म कुल श्रा पृथीराजधि- राज वंश श्री महाराज श्रीभगवन्तदास सुत श्रीमहाराजाधिराज श्रीमानसिहदेव श्रीवृन्दावन जोग पीठ स्थान मन्दिर कराजो श्रीगोविन्ददेव को काम उपरि श्री- कल्याणदास आज्ञा कारि माणिकचन्द चोपड़० शिल्पकारि गोबिन्ददास दीलव- रिकारिगरदः गोरषदासाभवल ॥" मन्दिर के चारो ओर सङ्कीर्ण कच्चे चौक में कोई उत्तम स्थान नहीं है, केवल पूर्व द्वार की वांई ओर कुछ थोडी फुलवारी है और पश्चिम द्वार की ओर अति निकट एका छत्री हैं यह छत्री प्रथम नाव्य मन्दिर के सामने थी परन्तु अब कि जीर्णोहार में परिष्कार एवं संस्कार कर के पश्चिम पान्त में एक चौतरे पर स्थापित कर दी गई। इसमे चरण चिन्ह शृङ्गवर के बने है और एक स्तम्भपर लिपि है ज्ञात होता है कि इसमें किसी के अस्थि समूह सञ्चि- त घे क्योंकि चरण चिन्ह का व्यवहार प्रायः ऐसे ही स्थान में होता है दूसरे राजाओं में ऐसी रीति सी प्रचलित है पुण्य स्थान में अस्थि सञ्चय कियाजाय॥ "संवत १६९३ वर कातिक वाद ५ सुभाँदने हजरत श्री३ शाहजहां राज्ये राणा प्रीअमरासह जी को वेटो राजाश्रीभीम जी राणी श्रीरम्भावती चौख- ण्डी सौराई छैनी।"
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