तक दो एक राज ओर होगए हों तो आश्चर्य नहीं । प्रशस्ति के 'झापालमाला सुदिवंगतासु' इस पद से ऐसा फलकाला मी है। यशोविग्रह से लेकर जयचन्द तक नामों में जितनी प्रशस्ति मिली हैं उन में बड़ा ही अन्तर है । जो तात्र-पत्र मैंने देरहा है उस का क्रम यह है यशोविग्रह, महीचन्द्र, न्द्रदेव, मदन-पाल, गोविन्देन्द्र गौर जयचन्द्र । जैनों ने इसी जयचन्द्र को जयन्तीचन्द्र लि- खा है और काशी का राज़ा लिखने का हेतु यह है कि 'तीर्थानि काशीकु-शिकोत्तरकौशलेन्द्रस्थानीयकानि परिपालयताभिगम्य' एस पद ले स्पष्ट है कि काशी भी उस समय कन्नौजवाली के अधिकार में थी इसी से काशी का राजा लिखा। और जयचन्द्र के प्रपितामह या उस के भी पिता के काल में जो श्री हर्ष कवि था उस को जयचन्द्र के काल में लिख दिया। छतरपुर को लिपि में जो श्रीहर्ष राजा का पुत्र यशोधर्म वा वर्स लिखा है वही यशोवि-प्राह मान लिया जाय और जयचन्द्र उसके बड़े पुत्र का वंश और छतरपुर की लिपि वाले छोटे पुत्र के वंश में हैं ऐसा मान लीजिए तो विरोध मिट जायगा। चन्द्रदेव ने 'श्रीमहाधिपुराधिराज्यमखिलं दोर्विक्रमेनार्जितम्' इस पर से कान्यजुब्ज का राज्य अपने बल से पाया यह भी झलकता है। इस से यह भी सम्भव है कि श्री हर्ष का राज्य कन्नौज से शेष न रहा हो और चन्द्र- देव ने नए सिर से राज्य किया हो। यशोविग्रह के वंश की कई शाखा है इस का प्रमाण प्रशस्तियों के भिन्न भिन्न नामों ही ले है। इस से ऐसा निश्चय होता है कि सम्बत् ८०० को लगभग जो बीहर्ष नासक कान्यकुब्ज का राना था उसी के हेतु रत्नावली आदि ग्रन्थ बने है *। कालिदास, विक्रम, भोज सब इस काल को सौ बरस के पास पास पीछे उत्पन्न हुए है और इसी से कालिदास ने मालविकाग्निमित्र में धावक का परिचय दिया है । कल्हण कवि ने जो राजतरंगिणी में कालिदास या इस श्री हर्ष का नाम नहीं दिया उस का कारण यही है कल्हण का स्वभाव असहिष्णु था और कालिदास से कश्मीर के राजा सीसगुप्त से (जा ८७५ ई० के काल में राज्य करता था) महा वैर था इस से उसने कालिदास का या उसके खासी विक्रम का नाम नहीं लिखा । कल्हण प्रायः सभी राजाओं की कुछ कुछ निन्दा कर देता है जैसा इसी हर्षदेव की जिसकी और स्थानों में बड़ी स्तुति है कल्हण ने
- पूर्व में तुंजीन के काल में एक हर्ष हुआ है यह लिख भी भाए हैं।