अव्यक्त सत्ता का साक्षात्कार करते हैं। कुहरे या जाली के बीच में किसी के रूपमाधुर्य्य की हलकी झलक पानेवाला पीछे अपने मन में उसके रूप की जो तरह-तरह की कल्पना किया करता है, उसे उसी का रूप न समझता है, न कहता है। यदि कल्पना मे आया हुआ रूप ही विम्ब या पारमार्थिक वस्तु है तब तो कल्पनात्मक रूप ही आलम्बन ठहरे। सारा अभिलाष, सारा औत्सुक्य उन्हीं के लिए समझना चाहिए।
कल्पनात्मक रूपो के इसी आलंवनत्व की प्रतिष्टा करके साम्प्रदायिक 'रहस्यवाद' काव्यक्षेत्र में खड़ा हुआ। इंग्लैंड के पूर्ववर्ती रहस्यवादी कवि ब्लेक (William Blake 1757—1827) ने कल्पना का बड़े ज़ोर से पल्ला पकड़ा और उसे नित्य पारमार्थिक सत्ता के रूप मे ग्रहण करके कहा—
"कल्पना का लोक नित्य लोक है। वह शाश्वत और अनन्त है। उस नित्य लोक में उन सब वस्तुओ की नित्य और पारमार्थिक सत्ताएँ हैं जिन्हें हम प्रकृति-रूपी दर्पण मे प्रतिबिंबित देखते हैं।"[१]
इस प्रकार ब्लेक ने भक्तिरस में दृश्य जगन् की रूप-योजना को आलंवन न कहकर, कल्पना-जगत् की रूप योजना को बालंबन
- ↑ "The world of imagination is the world of Eternity....... The world of imagination is infinite and eternal, whereas the world of generation or vegetation is finite and temporal There exist in that eternal world realities of everything which we see reflected in the vegetable glass of nature"