शक्ति के संचय का कारण यह भी है कि वे कई सहस्र वर्षों से कम-से-कम भारतीय जनता की कल्पना के अंग और भावों के विपय रहते आए हैं।वे परम्परागत प्रतीक हैं। काव्य में ऐसे ही।प्रतीकों का व्यवहार होता आया है और हो सकता है। यह तो प्रत्यक्ष है कि थोड़े से ही प्रतीक सार्वभौम हो सकते हैं । भिन्न भिन्न देशों की।परिस्थिति और संस्कृति के अनुसार प्रतीक भी भिन्न-भिन्न हुआ करते हैं । 'गुल-बुलवुल' से जिस भावना का संकेत फारसवाले।को मिलता है उस भावना का संकेत भारतवासी को नहीं;'चातक' से जिस भावना का संकेत भारतवासी को मिलता है उस भावना का संकेत योरपीय को नहीं । क्रूस (Cross )से जैसी पवित्रता और स्वर्गीय शान्ति का संकेत एक ईसाई को मिलेगा, हिन्दू या चौद्ध को नहीं। प्रकृति के नाना रूपो को भी भिन्न-भिन्न देशो ने भिन्न भिन्न भावों से देखा है । सघन वन, पर्वत आदि भारतीय या योरपीय हृदय को चाहे रमावे पर फारसी दृष्टिवाले को वे कष्ट या विपत्ति ही के सूचक होगे। अधिकतर कुहरे और बदली से आच्छन्न रहनेवाले योरप मे 'चमचमाती धूप' आनन्द और सुख-समृद्धि का संकेत हो, पर भारत के लिए नहीं हो सकती। 'स्निग्ध श्यामल घटा' में जो उदार और शीतल माधुर्य्य भारतीय देखता है, योरपीय नहीं। जाड़े की संध्या कुछ मनहूस और उदासी लिए होती है । इसमे विलायतवाले उसे शोक और उदासी का प्रतीक मानें तो ठीक है । पर हिन्दुस्तान में जाड़ा बहुत थोड़े दिनो रहता है। यहाँ तो दिन की आँख तिलमिलाने-
पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/९२
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८७
काव्य में रहस्यवाद