पर वास्तव में वह जीवन के भीतर की ही अनुभूति है, आसमान से उतरी हुई कोई वस्तु नहीं है। इसी प्रकार कविता और कवि की स्तुति मे जो बहुत से अलंकारपूर्ण वाक्य इधर कुछ दिनो से कहे, सुने और लिखे जाने लगे हैं, उन्होंने अर्थशून्य शब्दो का एक ऐसा झूठा परदा खड़ा कर दिया है जिसके कारण काव्यभूमि वहुत कुछ अन्धकार में पड़ती जाती है। कविता स्वर्ग से गिरती हुई सुधाधारा है, नन्दनवन के कुसुमो से टपकी मकरंद की बूंद है। अनन्त के दिव्य संगीत की स्वर-लहरी है, कवि इस लोक का जीव ही नहीं है, वह पार्थिव जीवन से परे है, उसका एक दूसरा ही जगत् है। वह पैग़म्बर है, औलिया है, रहस्यदर्शी है—ऐसी-ऐसी लचर बाते काव्य-समीक्षा के नाम से कही जाने लगी हैं। बुद्धि को रुग्ण करनेवाली, पाषण्ड का प्रचार करनेवाली, यह हवा अँगरेज़ी से बँगला में और बँगला से हिन्दी मे आई है। आज-कल सासिक-पत्रिकाओं में किसी कवि या काव्य की समीक्षा के वेश मे कभी-कभी वहुत-सी ऐसी अर्थशून्य पदावली—जो अँगरेजी या बँगला से उठाई हुई होती है—छपा करती है। निरर्थक इस शब्दों की आंधी से ऊबकर एक सूक्ष्मदर्शी अँगरेज़ समालोचक को यहाँ तक कहना पड़ा है कि "भाषा अभी तक उन सब वस्तुओ के स्वरूप को छिपाने ही में कृतकार्य हुई है जिनकी हम चर्चा किया करते हैं।"[१]
- ↑ Language has succeeded until recently, in hiding from us almost all the things we talk about.
—I. A. Richards: Principles of Literary Criticism