कि जिस रूप मे अनुभूति कवि के हृदय मे होती है, उसी रूप मे
व्यंजना कभी हो नहीं सकती। उसे प्रेपणीय बनाने के लिए --
दूसरों के हृदय तक पहुँचाने के लिए -- भाषा का सहारा लेना
पड़ता है। शब्दों में ढलते ही अनुभूति बहुत विकृत हो जाती है,
और की और हो जाती है। इसी से बहुत सी दिव्य और सुन्दर
अनुभूतियो को कवि यो ही छोड़ देते हैं, उनकी व्यंजना का प्रयास
ही नहीं करते। अत्यन्त गहरी अनुभूतिवाले बहुत से भावुक तो
कभी ऐसा प्रयास नहीं करते। वे जीवन भर एक प्रकार के मूक
कवि बने रहते हैं। बहुत सी कविता अनुभूति-दशा मे नही होती;
स्मृति-दशा में होती है। जो यह कहे कि जो कुछ हमारे भीतर था
सब हमारी कविता में आ गया है, उसमें काव्यानुभूति का अभाव
समझना चाहिए और उसकी कविता को कवियो की वाणी का
अनुकरण मात्र।
जैसे कवि वैसे ही पाठक या श्रोता भी कभी-कभी रसप्रवण होते हैं। लोग कभी कहते हैं कि 'वीररस की कोई कविता सुनाइए", कभी कहते हैं "श्रृङ्गाररस की कोई कविता सुनाइए।" इसका मतलब यही है कि कभी उनमे उत्साह का उन्मेष रहता है, कभी प्रम का, कभी किसी और भाव का। इस प्रकार रसोन्मुख होने पर वे अपने अन्तस् मे ऐसी वस्तु लाना चाहते हैं जिस पर भाव विशेष टिके, उस वस्तु के ऐसे विवरणो में अन्तदृष्टि रमाना चाहते हैं जिनसे वह भाव उद्दीप्त रहे, ऐसी उक्तियाँ सुनना चाहते हैं जो उस भाव द्वारा प्रेरित या अनुप्राणित समझ पड़ें।