शायरी में बहुत अधिक है। विभाव और भाव के सम्बन्ध का
स्पष्टीकरण न होने से -- इस बात का ध्यान न होने से कि मन मे
लाए हुए रूप किस प्रकार रस मे सहायक या बाधक होते हैं --
वेदना की यह विवृति कभी-कभी बड़े वीभत्स दृश्य सामने लाती
है । आवले फूटना, मवाद वहना, कलेजा चिड़ना, खून के क़तरे
टपकना, कबाब की तरह इधर-उधर भुनना -- वेदना का इस
प्रकार का ब्योरा श्रृंगार का पोषक नहीं हो सकता। खेद है कि
उर्दू की देखादेखी वेदना की ऐसी विवृति की नकल हिन्दी की
कविताओं में भी कुछ-कुछ हुई है और अब भी कुछ नए ढंग पर
होती है। संस्कृत के कवियो मे वेदना की विवृति भवभूति में ही
सबसे अधिक पाई जाती है; पर वह भारतीय काव्य-शिष्टता की
मर्य्यादा के भीतर है। वेदना की अधिक विवृति हम काव्य-
शिष्टता के विरुद्ध समझते हैं। हमे तो वेदना का अधिक व्योरा
पढ़ने पर ऐसा ही जान पड़ता है जैसे कोई भारी रोगी किसी वैद्य
के सामने अपने पेट के भीतर की शिकायतें बता रहा हो। प्रेम को
व्याधि के रूप में देखने की अपेक्षा हम संजीवनी-शक्ति के रूप में
देखना अधिक पसंद करते हैं।
अश्रु, स्वेद आदि का उल्लेख हमारे काव्य में भी हुआ है, पर ज़मीन से आसमान तक उनकी गंदी नदी नही बहाई गई है। जैसे अपनी प्रकृति का, अपने शरीर धर्मों का, बहुत अधिक वर्णन बातचीत की सभ्यता के विन्द्ध समझा जाता है वैसे ही अब काव्य की शिष्टता के विरुद्ध समझा जाना चाहिए।