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काव्य में रहस्यवाद


जाती है। 'भाव' से अभिप्राय संवेदना के स्वरूप की व्यंजना से है। विभाव से अभिप्राय उन वस्तुओं या विषयो के वर्णन से है जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव या संवेदना होती है। भारतीय साहित्य में दोनों पक्षो का सम-विधान पाया जाता है। वन, पर्वत, नदी, निर्झर, मनुष्य, पशु, पक्षी इत्यादि जगत् की नाना वस्तुओं का वर्णन आलंबन और उद्दीपन दोनो की दृष्टि से होता रहा है। प्रवन्ध-काव्यों में बहुत से प्राकृतिक वर्णन आलंबन-रूप में ही हैं। कुमारसम्भव के आरंभ का हिमालय-वर्णन और मेघदूत के मेघ का नाना प्रदेश-वर्णन उद्दीपन की दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। इन वर्णनों में कवि ही आश्रय है जो प्राकृतिक वस्तुओ के प्रति अपने अनुराग के कारण उनका रूप विवृत करके अपने सामने भी रखता है और पाठकों के भी। जैसा पहले कहा जा चुका है केवल आलंबन का वर्णन भी रसात्मक होता है। नख- शिख-वर्णनों में आलंबन के रूप का ही वर्णन रहता है पर वे रसात्मक होते हैं। विभाव के समान भाव-पक्ष का भी पूरा विधान हमारे यहाँ मिलता है। उक्ति, चेष्टा और शरीर-धर्म तीनो प्रकार के अनुभावो द्वारा भावों की व्यंजना होती आई है।

फारस की शायरी भाव-पक्ष-प्रधान है। उसमे विभाव-पक्ष का विधान नहीं या नहीं के बराबर हुआ। भाव-पक्ष मे भी केवल रति-भाव का ही सम्यक् ग्रहण पाया जाता है। इसी के अलौकिक उत्कर्ष की व्यंजना अलग-अलग एक-एक पद्य की गॅठी हुई उक्ति में होती है। वेदना की विवृति की चाल फारसी और उर्दू की