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काव्य में रहस्यवाद

योरप का यह 'अभिव्यंजना-वाद' हमारे यहाँ के पुराने 'वक्रोक्तिवाद' -- वक्रोक्तिः काव्य-जीवितम् -- का ही नया रूप या विलायती उत्थान है। अन्तर इतना ही है कि भंग्यन्तर के लिए हमारे यहाँ व्यंजना का अधिक सहारा लिया जाता है और योरप मे लक्षणा का। योरप की भाषाओ में लाक्षणिक चपलता अधिक होती है। अनूठेपन का काव्य में क्या स्थान है, यह बात अब विचार के लिए सामने आती है।

जगत् की नाना वस्तुओ, व्यापारों और बातों को ऐसे रूप में रखना कि वे हमारे भावचक्र के भीतर आ जायँ, यही काव्य का लक्ष्य होता है। विश्व की अनन्तता के बीच जिस प्रकार ज्ञान अपना प्रसार चाहता है, उसी प्रकार हृदय भी। वह भी अपने रमने के लिए नई-नई भूमि चाहता है। अनूठापन कहीं तो किसी भाव या मनोवृत्ति की व्यंजना में -- अर्थात् जिन वाक्यों में उस भाव की व्यंजना होती है उनमें -- और कहीं उस वस्तु या तथ्य में ही जिसकी और कवि अपने चित्रण-कौशल से भाव को प्रवृत्त करता है। सुबीते के लिए एक को हम भाव-पक्ष का अनूठापन कह सकते हैं; दूसरे को विभाव-पक्ष का।

अनूठापन काव्य के नित्य स्वरूप के अन्तर्गत नहीं है, एक अतिरिक्त गुण है जिसमे मनोरंजन की मात्रा बढ़ जाती है। इसके बिना भी तन्मय करनेवाली कविता बराबर हुई है और होती है। पद्माकर की इस सीधी-सादी उक्ति में -- "नैन नचाय कह्यो मुसकाय लला! फिर आइयो खेलन होरी" -- पूरी रमणी-