इसी सम्बन्ध में लगे हाथों यह भी विचार कर लेना चाहिए कि रीति, लक्षण, अलंकार आदि काव्य मे किस रूप में सहायक हो सकते हैं और किस रूप में बाधक। पहली बात तो ध्यान देने की यह है कि लक्षण-ग्रंथो के बनने के बहुत पहले से कविता होती आ रही थी। उन्ही कविताओ को लक्ष्य करके लक्षण बनाए गए। इससे स्पष्ट है कि काव्य की रचना उनपर अवलंबित नहीं। ये लक्षण आदि वास्तव मे काव्यचर्चा की सुगमता के लिए बने। पर बहुत सी काव्य-रचना हमारे यहाँ इन्ही लक्षणों के भीतर आ जाने को ही सब कुछ मान कर होने लगी। कुछ सजीवता न रहने पर, भी श्लेष, यमक, उपमा, उत्प्रेक्षा इत्यादि की कसी हुई भरती, तथा विभाव, अनुभाव और संचारी की रस्म-अदाई पर ही वाह-वाह करने की चाल पड़ गई। कुछ-कुछ इसी प्रकार की दशा जब योरप मे हुई और किसी काव्य की उत्तमता का निर्णय साहित्य की बधी हुई रीति-विधि के अनुसार ही होने लगा, तब प्रभाववादी (Impressionists) उठ खड़े हुए, जिन्होंने सुझाया कि किसी काव्य की उत्तमता की सच्ची परख यही है कि वह हृदय पर कैसा प्रभाव डालता है; उससे किस प्रकार की अनुभूति उत्पन्न होती है।
प्रभाव-वादियो के अनुसार किसी काव्य की ऐसी अलोचना कि "यहाँ रूपक का निर्वाह बहुत अच्छा हुआ है, यहाँ यतिभंग है, यहाँ रसविरोध है, यहाँ पूर्णरस है, यहाँ च्युत संस्कृति या पतत्प्रकर्ष है" कोई आलोचना नहीं। मान लीजिए कि कोई सुन्दर काव्य हमारे सामने है। उसे पढ़ने में हमे आनन्द की गहरी