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काव्य में रहस्यवाद


शेली ने अपनी "जिज्ञासा" (The Question) नाम की कविता बड़ी सुन्दर जिज्ञासा के साथ समाप्त की है। स्वप्न में वे वसन्त-विकास और सौरभ से पूर्ण एक अत्यन्त रमणीय नदी-तट पर पहुंचते हैं। उस व्यक्त और गोचर स्थल का ही बहुत संबद्ध और संश्लिष्ट चित्रण सारी कविता में हुआ है। अन्त में जाकर वे कहते हैं कि 'मैंने फूलों को चुन-चुनकर बहुत सुन्दर स्तवक तैयार किया और बड़े आह्लाद के साथ वहाँ दौड़ा गया जहाँ से आया था कि उसे अर्पित करूँ। पर अरे! किसे?" इस 'किसे' में अद्वैत का कैसा सुन्दर आभास मात्र है! 'वाद' का कोई विस्तार नहीं है।

I made a nosegay...........
Kept these imprisoned children of the Hours
Within my hand,—and then elate and gay,
I hastened to the spot whence I had come,
That I might there present it-O! to Whom?

इस प्रकार की स्वाभाविक और सच्ची रहस्य-भावना का माधुर्य प्रत्येक सहृदय स्वीकार करेगा। पर जब किसी वाद के सहारे वेदना की तरी पर सवार होकर अन्धड़ और अन्धकार के बीच ससीम की असीम की ओर यात्रा होगी, सामने अलौकिक ज्योति फूटती दिखाई देगी, लोक-लोकान्तर और कल्प-कल्पान्तर के समाहृत अरुणोदय में असीम-ससीम के मिलन पर विश्व-हृदय की तंत्री के सब तार झंकारोत्सव करने लगेगे, आप-ही-आपको