विववाद, कल्पनावाद आदि वादो का सहारा लेकर इन भावों को अव्यक्त और अगोचर के प्रति कहना और अपने काल्पनिक रूप-विधान को ब्रह्म या पारमार्थिक सत्ता की अनुभूति बताना, काव्य-क्षेत्र में एक अनावश्यक आडंबर खड़ा करना है। यदि यह कहा जाय कि सदा बदलते रहनेवाले इस दृश्य प्रसार की तह मे तो सदा एकरस रहनेवाली अव्यक्त सत्ता है ही, अतः जिस अनुराग के साथ प्रकृति की भव्य रूप-योजना की जाती है उसे उसी अव्यक्त शक्ति या सत्ता के प्रति कहने मे क्या हर्ज है, तो इसका उत्तर यह है कि इससे भावक्षेत्र में असत्य का प्रचार होता और पापंड का द्वार खुलता है। यदि कोई चटोरा आदमी कोई बहुत ही मीठा फल खाकर जीभ चटकारता हुआ उसका बड़े प्रेम से वर्णन करे और पूछने पर कहे कि मेरा लक्ष्य उस फल की ओर नहीं; उस वृक्ष के मूल या वीज की ओर है जिसका वह फल है, तो उसके इस कथन का क्या मूल्य होगा? जो यह भी नहीं जानता कि 'ब्रह्मवाद' और 'कविता' किन चिड़ियों के नाम हैं, जो अँगरेजी की अंधी नक्कल पर बनी बँगला की कविताओ तथा वैष्णव कवियों की बंग-समीक्षायो तक ही सारी दुनिया खतम समझता है, वह यदि मुँह वना-बनाकर कहने लगे कि "जब मैं ब्रह्मवाद की कोई कविता देखता हूँ तब हर्ष से नाच उठता हूँ" तो एक मुशिक्षित सुननेवाले पर क्या असर होगा?
अब यहाँ पर थोड़ा यह भी विचार करने की आवश्यकता प्रतीत होती है कि भाव के क्षेत्र में परोक्ष की 'जिज्ञासा' का क्या