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काव्य में रहस्यवाद

चार्य्य का; पर दोनों में उतना ही अंतर है जितना भारत और योरप मे। व्यवहार-पक्ष में शंकराचार्य्य ने जिस उपासना-गम्य ब्रह्म का अवस्थान किया है वह सोपाधि या सगुण ब्रह्म है; अव्यक्त पारमार्थिक सत्ता नहीं। अव्यक्त, निर्गुण, निर्विशेष, (Absolute) ब्रह्म उपासना के व्यवहार में सगुण ईश्वर हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि उपासना जब होगी तब व्यक्त और सगुण की ही होगी; अव्यक्त और निर्गुण की नहीं। 'ईश्वर' शब्द ही सगुण और विशेष का द्योतक है; निर्गुण और निर्विशेष का नही। उसके भीतर सेव्य-सेवक-भाव छिपा हुआ है। स्थूल आकार मात्र हटाकर दया, अनुग्रह, प्रेम, सौन्दर्य्य इत्यादि मे योरपवाले चाहे अभौतिक, अगोचर, अव्यक्त या परा सत्ता की प्राप्ति समझ लें; पर सूक्ष्म भारतीय दार्शनिक दृष्टि इन सब को प्रकृति के भीतर ही लेगी। दया, अनुग्रह, औदार्य आदि मन की वृत्तियाँ हैं जो प्रकृति का ही विकार है। इसी प्रकार सौन्दर्य्य, माधुर्य्य आदि भूतो के गुण हैं। ये सब गोचर के अन्तर्भूत हैं, क्योकि मन जो इनका बोध करता है भीतरी इन्द्रिय ही है। भारतीय और योरपीय दृष्टि के इस भेद को ध्यान मे रखना चाहिए।

भारतीय दृष्टि के अनुसार अज्ञात और अव्यक्त के प्रति केवल जिज्ञासा हो सकती है। अभिलाप या लालसा नहीं। यदि कहा जाय कि 'मोक्ष' की इच्छा का फिर क्या अर्थ होगा? इसका उत्तर यह है कि मोक्ष या मुक्ति केवल अभाव-सूचक