२. इस भूलोक के भीतर ही, पर अतीत के क्षेत्र में।
३. इस भूलोक के भीतर ही, पर भविष्य के गर्भ में।
४. इस गोचर जगन् के परे अभौतिक और अव्यक्त के क्षेत्र में।
१. इन चारों क्षेत्रों के भीतर ले जाकर मनुष्य अपनी सुख-सौन्दर्य और मंगल की भावना को पूर्णता या पराकाष्ठा तक पहुँचाने का थोड़ा या बहुत प्रयत्न करता रहा है। इनमें से प्रथम क्षेत्र की ओर मनुष्य जाति का ध्यान स्वभावतः सबसे पहले गया। पृथ्वी पर रहकर भी मनुष्य ने व्यक्त जगन् की अनन्तता का प्रत्यक्ष अनुभव किया। अनन्त आकाश के बीच नक्षत्रों के रूप में अनन्त लोकों का निश्चय उसे सहज में हो गया। वहीं पर कहीं उसकी भावना ने स्वर्ग आदि पुण्य लोकों का अवस्थान किया जहाँ जरा-मृत्यु का भय नहीं; दुख, क्लेश, भय का नाम नहीं; आनन्द-ही-आनन्द है—आनन्द भी ऐसा-वैसा नहीं नन्दन-कानन का विहार। लोक-सामान्य धर्म-व्यवस्था और काव्य दोनों में इस भावना का उपयोग हुआ।
२. द्वितीय क्षेत्र में सुख-सान्दर्य की पूर्णता की भावना उस समय से हुई जब प्राचीन इतिहास, कथा-पुराण आदि का मौखिक प्रचार मनुष्य जाति के बीच हुआ। इन कथाओं में पूर्वकाल की वीरता, धीरता, धर्मपरायणता, सुख समृद्धि आदि का बहुत ही मनोरंजक और अत्युक्त वर्णन रहता था जिसे सुनते-सुनते भूतकाल के बीच सुख-सौन्दर्य की पूर्णता की