अतः आत्मदृष्टि उतनी ही दूर तक बॅधी न रखो जितनी दूर तक तुम्हारे ज्ञान और बुद्धि के दीपक का प्रकाश पहुँचता है। अपनी लालसा को अज्ञात के अंधकार की ओर छानबीन करने के लिए बढ़ाओ। संभव को जान कर उसके बाहर अनहोनी बातों और असंभव लक्ष्यों की ओर बढ़ो। धीरे-धीरे तुम देखोगे कि तुम्हारा ज्ञात की लालसा का क्षेत्र भी आप से आप वैसा ही व्यापक हो जायगा जैसा आत्मा का। इस प्रकार सृष्टि का उद्देश्य पूर्ण हो जायगा।"
इस प्रकार हज़रत ईसा के मुँह से रहस्यवाद के सिद्धान्तपक्ष का निरूपण कराया गया है। इसका निचोड़ यही है कि लालसा को व्यक्त और ज्ञात के बाहर, अव्यक्त और अज्ञात तक ले जाना चाहिए। इस कथन पर विचार करने के पहले लालसा या अभिलाप का स्वरूप निश्चित कर लेना चाहिए। लालसा ऐसी वस्तुओ के प्रति होती है जिनकी प्राप्ति या साक्षात्कार से सुख और आनन्द होता है। इस जगत् में सुख और आनन्द दुःख और क्लेश के साथ मिला-जुला पाया जाता है। दूसरी बात यह है कि जितना आनन्द, जितना सुख-सौन्दर्य्यं, इस जगत् में देखा जाता है उतने से मनुष्य की भावना परितृप्त नहीं होती। वह सुख-सौन्दर्य को अधिक पूर्ण रूप में देखा चाहती है। भावना या कल्पना को इस पूर्णता के अवस्थान के लिए चार क्षेत्र मिल सकते हैं—
१. इस भूलोक के बाहर, पर व्यक्त जगत् के भीतर ही, किसी अन्य लोक मे।