Body) में, काव्य की वास्तविक भूमि क्या है, इसका आभास दिया है। उस कविता में आत्मा इस 'चेतना के तंग घेरे से बाहर होने के लिए मनोमय कोश (जानेन्द्रियाँ और मन जिनसे सांसारिक विपयों की प्रतीति होती है) को फेंका ही चाहती है कि शरीर उसको चेतावनी देता है कि ऐसा करने से
"तू इस विस्मयपूर्ण आनन्द को खो बैठेगा जिसे मैंने अपनी विषय विधायिनी इन्द्रियो द्वारा इस प्रिय जगत में खड़ा कर रखा है। फिर यह नील-हरित, यह सौरभ, यह संगीत कहाँ? फिर यह शाद्वल प्रसार, यह मंद प्रशान्त अनिल-स्पर्श और ढलते सूर्य्य का स्वर्णाभ विराम कहाँ? फिर ये ऊँची उठी हुई पर्वतों की चोटियाँ कहाँ, जो आँखों पर कुहरे की पट्टी बाँधे (ध्यानावस्थित हो) मानो नित्य और दिव्य अनाहत स्वर सुन रही हैं।"[१]
मनोमय कोश ही प्रकृत काव्यभूमि है, यही हमारा पक्ष है। इसके भीतर की वस्तुओ की कोई मनमानी योजना खड़ी करके
- ↑ Thou wilt miss the wonder I have made for thee
Of this dear world with my fashioning senses—
The blue, the fragrance, the singing and the green;
XXXXGreat spaces of grassy land, and all the air
One quiet, the sun taking golden ease
Some god's eternal tape.
Upon an afternoon;
Tall hils that stand in weather-blinded trances
As if they heard, drawn upward and held there,