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काव्य में रहस्यवाद

इन्द्रियो ने मुझे वेतरह ठगा"। इस पद में ईश्वर और परलोक माननेवाले मनुष्य मात्र की सामान्य भावना का अनुसरण करके बड़ा ही मधुर मूर्त्त विधान है। कुछ खटकनेवाला शब्द 'त्रिवेणी' (त्रिगुणात्मक प्रवाह) है क्योंकि प्रकृति के तीन गुण एक दर्शन विशेष के भीतर की निरूपित संख्या हैं। पर इस शब्द से अध्यवसान मे बड़ा सुन्दर समन्वय हो गया है।

अन्योक्ति-पद्धति का अवलंबन कबीरदासजी ने कम ही किया है। अधिकतर स्थानों मे उन्होने विकारो, भूतो, इन्द्रियों, चक्रों, नाड़ियो इत्यादि की शास्त्रों में बाँधी हुई केवल संख्याओं का उल्लेख साध्यवसान रूपको मे करके पहेली बुझाने का काम किया है। उनकी जो अन्योक्तियाँ या अध्यवसान प्रहेलिका के रूप में नहीं हैं और वादमुक्त हैं, वे ही शुद्ध काव्य के अन्तर्गत आ सकते हैं। वाद या सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित बातो को स्वभाव-सिद्ध तथ्य के रूप में चित्रित करना और उनके प्रति अपने भावों का वेग प्रदर्शित करके औरो के हृदय मे उस प्रकार की अनुभूति उत्पन्न करने की चेष्टा करना, हम सच्चे कवि का काम नहीं मानते; मतवादी का काम मानते हैं। मनुष्य का हृदय अत्यन्त पवित्र वस्तु है। उसे प्रकृत मार्ग से यों ही इधर-उधर भटकाने की चेष्टा, चाहे वह निष्फल ही क्यों न हो, उचित नहीं।

मनुष्य-जीवन की वर्तमान और भविष्य स्थिति के सम्बन्ध में सूक्ष्म विचार द्वारा उपलब्ध तथ्यो और भावनाओं का मूर्त्त प्रत्यक्षीकरण आजकल योरप के काव्यक्षेत्र की सामान्य प्रवृत्ति