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काव्य में रहस्यवाद

सिद्ध, लोक-स्वीकृत और ठीक ठिकाने का होना चाहिए, क्योंकि व्यंजना उसी की होती है। हमारे यहाँ दर्शन के नाना वादाे को काव्यक्षेत्र में घसीटने की प्रथा नहीं थी। अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, विशुद्धाद्वैत इत्यादि अनेक वेदान्ती वाद प्रचलित हुए पर काव्यक्षेत्र से, भक्तिकाव्य में भी, वे दूर ही रखे गए। निर्गुण-सम्प्रदायवाले ही सूफियों की नकल पर अद्वैतवाद, मायावाद, प्रतिविववाद इत्यादि की व्यंजना तरह-तरह के रूपकों, साध्यवसान रूपकों,[] अन्योक्तियों इत्यादि द्वारा चित्ताकर्षिणी मूर्तिमत्ता के साथ करते रहे। ब्रह्म, माया, पंचेन्द्रिय, जीवात्मा, विकार, परलोक आदि को लेकर कबीरदास ने अनेक मूर्त्त स्वरूप खड़े किए हैं।

इन मूर्त्त रूपकों में ध्यान देने की बात यह है कि जो रूप-योजना केवल अद्वैतवाद, मायावाद आदि वादों के स्पष्टीकरण के लिए की गई है उसकी अपेक्षा वह रूपयोजना जो किसी सर्वस्वीकृत, सर्वानुभूत तथ्य को भावक्षेत्र में लाने के लिए की गई है, कहीं अधिक मर्मस्पशिणी है। उदाहरण के लिए मायावाद-समन्वित अद्वैतवाद के स्पष्टीकरण के लिए कबीर की यह उक्ति लीजिए—


  1. इमे रूपकातिशयोक्ति से भिन्न समझना चाहिए जिसमें अध्यवसान प्रातिशय्य की व्यंजना के लिए होता है। साध्यवसान रूपक (Allegory) में अध्यवसान केवल मूर्त्त प्रत्यक्षीकरण के लिए होता है, आतिशय्य की व्यंजना के लिए नहीं। साध्यवसान रूपक एक भद्दी चीज़ है इमे विलायती रहस्यवादी इंट्स (Yeats) तक स्वीकार करते हैं।