चात है। प्रकृति की व्यंजना द्वारा गृहीत तथ्यों, उपदेशों आदि में कवि की दृष्टि मनुष्य-जीवन पर रहती है। इस भेद को अच्छी तरह ध्यान में रखना चाहिये। दोनों विधानो का महत्त्व वरावर है। इनमें से किसी एक को उच्च और दूसरे को मध्यम कहना एक आँख बंद करना है। यही एकांगदर्शिता योरपीय समीक्षको का बड़ा भारी दोप है।[१] यदि योरप के कवि उनकी बातों पर चलते तो वहाँ से कविता या तो अपना डेरा-डंडा उठा लिए होती, या लूली-लँगड़ी हो जाती। तथ्य-ग्रहण में अत्यन्त निपुण शेली, वर्ड्सवर्थ, मेरडिथ आदि बड़े-बड़े कवियो ने वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति आदि संस्कृत के प्राचीन कवियो की शैली पर कोरे प्राकृतिक दृश्यो का, विना किसी दूसरे तथ्य-विधान के, बड़ा ही सूक्ष्म और संश्लिष्ट चित्रण किया है और बहुत अधिक किया है। 'वे इसके लिए प्रसिद्ध हैं।
प्रकृति की ठीक और सच्ची व्यंजना के बाहर जिस भाव, तथ्य
- ↑ रिचर्ड्स ने योरपीय समीक्षा-क्षेत्र के अर्थशून्य वागाडंबर और गढ़बड़झाले पर बहुत खेद प्रकट किया है। उन्होंने संक्षेप में उसका स्वरूप इन शब्दों में सूचित किया है—
A few conjectures, a supply of admonitions, many acute isolated observations, some brilliant guesses, much oratory and applied poetry, inexhaustible confusion, sufficiency of dogma, no small stock of prejudices, whimsies and crotchets, a profusion of mysticism, a little genuine speculation, sundry stray 10spirations; of such as these is extant critical theory composed.