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काव्य में रहस्यवाद

झड़ी को चाहता है, न इस ठंड ही को। न तो यह इसका साहस ही है, न रुचि। यह जरावस्था की अवशता है।"

प्रकृति की ऐसी ही सच्ची व्यंजनाओं को लेकर अन्योक्तियों का विधान होता है, जो इतनी मर्मस्पशिणी होती हैं। साहित्य-मीमांसकों के अनुसार अन्योक्ति मे प्रस्तुत वस्तु व्यंग्य होती है अर्थात्जो प्राकृतिक दृश्य सामने रखे जाते हैं उनसे किसी दूसरी वस्तु की, विशेपतः मनुष्य-जीवन-सम्बन्धी किसी मर्मस्पर्शी तथ्य की, व्यंजना की जाती है। अन्योक्तियों में ध्यान देने की बात यह है कि व्यंग्य तथ्य पूर्णतया ज्ञात होता है और हृदय को स्पर्श कर चुका रहता है, इससे प्रकृति के दृश्यों को लेकर जो व्यंजना की जाती है वह बहुत ही स्वाभाविक और प्रभावपूर्ण होती है। संस्कृत को जितनी अन्योक्तियाँ मिलती हैं सब इसी ढंग की होती हैं। उनके आधार पर बाबा दीनदयाल गिरि ने अपने "अन्योक्ति-कल्पद्रुम" में बड़ी सुन्दर अन्योक्तियाँ कही हैं। पर दो एक ऐसी अन्योक्तियाँ भी उस पुस्तक में मिलेंगी जिनमें परोक्ष, अव्यक्त या अज्ञात तथ्य की व्यंजना का अनुकरण किया गया है, जैसे—

चल चकई! वा सर विपय जहँनहिं रैनि विछोह।
रहत एकरस दिवस ही सुह्रद हंस-संदोह।
सुहद हंस-संदोह कोह अरु द्रोह न जाके।
भोगत सुख-अंबोह, मोह दुख होय न ताके।
वरनै दीनदयाल भाग्य विनु जाय न सकई।
पिय-मिलाप नित रहै ताहि सरतू चल चकई॥