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काव्य में रहस्यवाद

अयोध्या की राजसभा में नहीं। अपनी-अपनी रुचि है। अस्तु, यहाँ पर इतना ही कहना है कि भाव-साहित्य में मनुष्येतर चर-अचर प्राणियों को थोड़ा और प्रेम का स्थान मिलना चाहिए। वे हमारी उपेक्षा के पात्र नहीं हैं। हम ऐसे आख्यान या उपन्यास की प्रतीक्षा में बहुत दिनों से हैं जिसमें मनुष्यो के वृत्त के साथ मिला हुआ किसी कुत्ते-बिल्ली आदि का भी कुछ वृत्त हो; घटनाओं के साथ किसी चिरपरिचित पेड़-झाड़ी आदि का भी कुछ सम्बन्ध दिखाया गया हो।

कहीं कहीं विलायती काव्य-समीक्षाओ मे यह लिखा मिलेगा कि प्रकृति का केवल यथातथ्य चित्रण काव्य तो है, किन्तु प्रारंभिक दशा का, उन्नत दशा या ऊँची श्रेणी का नहीं। इस कथन का अर्थ अगर बहुत दूर न घसीटा जाय, अपनी ठीक सीमा के भीतर रखा जाय, तो यही होगा कि प्रकृति के रूपों के चित्रण के अतिरिक्त उनकी व्यंजना पर भी ध्यान देना चाहिए। प्रकृति के नाना वस्तु-व्यापार कुछ भावो, तथ्यों और अन्तर्दशाओ की व्यंजना भी करते ही हैं। यह व्यंजना ऐसी अगूढ़ तो नहीं होती कि सब पर समान रूप से भासित हो जाय, किन्तु ऐसी अवश्य होती है कि निदर्शन करने पर सहृदय या भावुक मात्र उसका अनुमोदन करें। यदि हम खिली कुमुदिनी को हँसती हुई कहें, मंजरियों से लदे आम को माता और फूले अंगों न समाता समझे, वर्षा का पहला जल पाकर साफ-सुथरे और हरे पेड़-पौधों को तृप्त और प्रसन्न बताएँ, कड़कड़ाती धूप से तपते किसी बड़े