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काव्य मे रहस्यवाद

वृक्ष, पशु, पक्षी आदि के—प्रति स्पष्ट रूप में प्रेम की व्यंजना बहुत कम पाई जाती है। यह प्रेम स्वाभाविक और वास्तविक है, इसका अनुभव थोड़ा-बहुत तो सबको होगा। लड़कपन मे जिस पेड़ के नीचे कभी हम खेला करते थे उसे बहुत दिनों पीछे देखने पर हमारी दृष्टि कुछ देर उस पर अवश्य थम जाती है। हम प्रेम से उसकी ओर देखते हुए उसके जीर्ण या बूढ़े होने की बात लोगो से कहते हैं। जिस कुत्ते ने कभी बहुत से कामों में हमारा साथ दिया था उसकी याद हमे कभी-कभी आया करती है। जो बिल्ली कभी-कभी जाड़े की धूप मे हमारे छत के मुॅडेरे पर लेट कर अपना पेट चाटा करती थी उसके बच्चों को हम कुछ प्रेम के साथ पहचानते हैं। जिन झाड़ियो को हम अपने जन्मग्राम के पास के नाले के किनारे देखा करते थे उन्हें किसी दूर देश में पहले-पहल देखकर उनकी ओर कम-से-कम मुड़ ज़रूर जाते हैं। पशु भी बदले में प्रेम करते हैं—केवल हित-अनहित ही नहीं पहचानते—इसके कहने की आवश्यकता नहीं। राम के वन जाने पर उनके प्यारे घोड़ो का हीसना, कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गायो का हूँकना, कवियो ने भी कहा है। तपोवन से प्रस्थान करते समय शकुन्तला की आँखों मे अपने पोसे हुए मृगछौने और सीच-सीच कर बढ़ाए हुए पौधों को देख कर भी कुछ ऑसू आए थे।

न-जाने क्यो हमें मनुष्य जितना और चर-अचर प्राणियो के बीच में अच्छा लगता है उतना अकेले नहीं। हमारे राम भी हमें मंदाकिनी या गोदावरी के किनारे बैठे जितने अच्छे लगते हैं उतने