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काव्य में रहस्यवाद


ज्यो-ज्यों मनुष्य अपनी सभ्यता की झोक मे इन प्राचीन सहचरों से दूर हटता हुआ अपने क्रिया-कलाप को कृत्रिम आवरणों से आच्छन्न करता जा रहा है त्यों-त्यो उसका असली रूप छिपता चला जा रहा है। इस असली रूप का उद्घाटन तभी हुआ करेगा जब वह अपने बुने हुए घने जाल के घेरे से निकल कभी-कभी प्रकृति के अपार क्षेत्र की ओर दृष्टि फैलाएगा और अपने इन पुराने सहचरो के सम्बन्ध का अनुभव करेगा। अपने घेरे से बाहर की क्रूरता और निष्ठुरता के अभ्यास का परिणाम अन्त मे अपने घेरे के भीतर प्रगट होता है। योरपीय जातियो ने एशिया,अफ्रीका और अमेरिका आदि बाहरी भूभागों में जाकर क्रूरता और निष्ठुरता का बड़े अध्यवसाय के साथ अभ्यास किया। फल क्या हुआ? उसी निष्ठर और क्रूर वृत्ति का अत्यन्त भीषणविधान अन्त में गत महायुद्ध मे योरप ही के भीतर सामने आया जिससे वहाँ आध्यात्मिकता की चर्चा का फैशन, जो उन्नीसवीं शताब्दी की आधिभौतिक प्रवृत्ति के हद से ज्यादः बढ़ने पर प्रतिवर्तन (Reaction) के रूप में पहले से चल पड़ा था, खूब बढ़ा। पर इस रोग की दवा अध्यात्मवाद, आत्मा की एकता, ब्रह्म की व्यापकता आदि की बनावटी पुकार नहीं है। इसका एक मात्र उपाय चराचर के बीच "एक हृदय" की सच्ची अनुभूति तथा मनुष्यता तक ही नहीं उसके बाहर भी भावों का सामंजस्यपूर्ण प्रसार है।

अब तक जो कविता हुई है उसमें मनुष्येतर प्राणियों के—