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काव्य में रहस्यवाद


सड़े चले जा रहे हैं बँधे अपने ही बीच,
जो कुछ बचा है उसे बचा कहाँ पावें हम?
मूल रस स्रोत हो हमारे वही, छोड़ तुम्हे,
सूखते हृदय सरसाने कहाँ जावें हम?

 



रूपो से तुम्हारे पले होगे जो हृदय वे
ही मंगल की योग-विधि पूरी पाल पावेगे।
जोड़ के चराचर की सुख-सुषमा के साथ,
सुख को हमारे शोभा सृष्टि की बनावेगे।
वे ही इस महँगे हमारे नर-जीवन का
कुछ उपयोग इस लोक में दिखावेंगे।
सुमन-विकास, मृदु आनन के हास, खग
मृग के विलास वीच भेद को घटावेंगे।

 



नर मे नारायण की कला भासमान कर,
जीवन को वे ही दिव्य ज्योति सा जगावेंगे।
कूप से निकाल हमें छोड़ रूपसागर में,
भव की विभूतियों में भाव सा रमावेंगे।
वैसे तो न जाने कितने ही कुछ काल कला
अपनी दिखाते अस्त होते चले जावेंगे।
जीने के उपाय तो वतावेंगे अनेक; पर
जिया किस हेतु जाय, वे ही बतलावेगे।